क्रोध, कलह, क्रूरता और कटुता
सींचे धारती धार्म की
धरती में एक बीज बोया जाता है वह बीज मृदुमाटी का संसर्ग पाकर नम होता है। उसके भीतर से अंकुर फूटता है। फिर उसमें विकास होता है और क्रमश: वृक्ष का रूप धारण करता है। जो दशा एक बीज से वृक्ष की है वही दशा क्षमा से लेकर ब्रह्मचर्य तक की है।
धरती का मतलब होता है क्षमा। जब हम अपने भीतर धर्म का बीज क्षमा की धरती पर डालते हैं तो हमारी चेतना का बीज अंकुरित होता है। मृदुमाटी के संसर्ग से मृदुता आना यानी मार्दव आना और उसके बाद उससे जो अंक
मान, सम्मान, बहुमान और अपमान
मैंने देखा- एक अंगीठी सुलग रही थी। लाल-लाल अंगारे उसमें दमक रहे थे। इसी मध्य एक अंगार के मन में ख्याल आया कि जब मैं इतना कान्तिमान, इतना द्युतिमान हूँ। मुझमें इतनी आभा, प्रकाश और तेज है तो मैं इस अंगीठी में क्यों रहूँ? और इसी विचार से क्या था, थोड़ी ही देर में उस अंगारे की चमक, कान्ति फीकी पड़ने लगी। उसके ऊपर राख की परत जमने लगी। देखते ही देखते उसका दम घुट गया और मुँह काला हो गया। जो अभी तक अपनी कान्ति को बिखेर रहा था अब वह कालिमा से ग्रस्त हो गया। बंधुओं! आज के
कृत्रिमता, कुटिलता, जटिलता और कपट
मैंने देखा एक साँप तेजी से लहराता हुआ चल रहा था और चलते-चलते जब अपने बिल में प्रवेश करने को हुआ तो एकदम सीधा हो गया और सीधे बिल में प्रवेश कर गया। मेरे मन में बात आई कि मनुष्य दुनिया में टेढ़े-मेढ़े तरीके से चल सकता है लेकिन भीतर वही प्रवेश करता है जो इकदम सीधा होता है। इसी सीध पन का नाम आर्जव है। सीधापन, सरलता बहुत कठिन है। देखा जाए तो आदमी डील-डोल से बहुत सीधा दिखता है लेकिन मनुष्य के भीतर बहुत टेढ़ापन है। किसी ने लिखा कि एक युग था जब लोग टेढ़े रास्तों पर
आवश्यकता, आकांक्षा, आसक्ति और अतृप्ति
एक राजा ने किसी सन्त के चरणों में उपस्थित होकर उनसे अपने राजमहल में भिक्षा ग्रहण करने का निवेदन किया। सन्त ने राजा का निवेदन स्वीकार कर लिया और कहा- ठीक है, कल मैं तुम्हारे राजमहल में भिक्षा ग्रहण करूंगा। संत का आश्वासन पाकर राजा फूला न समाया, सन्त के स्वागत में उसने पलक-पाँवड़े बिछा दिए। निश्चित समय पर सन्त का आगमन हुआ। राजा ने उनसे भिक्षा ग्रहण करने का अनुरोध किया तो सन्त ने कहा- मैं अपनी भिक्षा में ज्यादा कुछ नहीं लेता, मेरे पास एक कटोरा है, मैं उस क
पहचान, निष्ठा, आचरण और उपलब्धि
बात सत्य की है। उस सत्य की जिसके विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता। सत्य अकथ्य है पर अलभ्य नहीं। सच के बारे में कहा नहीं जा सकता पर अनुभव जरूर किया जा सकता है। भारतीय परम्परा में सत्य को परम सत्ता कहा है। सत्य की परमेश्वर कहा है। हमारे तीर्थकर भगवन्तों ने भी कहा है कि सत्य ही परमेश्वर है, सत्य ही भगवान है। हर व्यक्ति के भीतर वह सत्य है। उस सत्य के विषय में क्या कहा जाए। सत्य को पहचानने की जरूरत है। जो मनुष्य सत्य को पहचानता है वही सत्य को प्राप्त कर पाता है। सत्य
आसक्ति, आतुरता, अतृप्ति और अधीरता
पर्वत के शिखर से नदी बहती है। अपने दोनों तटों के मध्य नियंत्रित वेग और निर्धारित दिशा की ओर जब वह प्रवाहित होती है तब विशाल सागर का रूप धारण कर लेती है। नदी जब अपने कूल-किनारों के मध्य नियंत्रित वेग और निर्धारित दिशा की ओर प्रवाहित होती है तो सागर में समाहित होती है और जब अपने कूल-किनारों का उल्लंघन कर देती है, उन्हें छोड़ देती है तो मरुस्थल में भटककर खो जाती है। नदी; सागर में सिमटकर भी मिटती है और मरुस्थल में भटककर भी मिटती है। नदी का सागर में सिमट जाना अप
शक्ति, अभिव्यक्ति, समस्या और तपस्या
नदी के किनारे एक चट्टान थी। धोबी उस पर बैठकर कपड़े धोया करते थे, सैलानी उस पर बैठते और लहरों के साथ अठखेलियाँ खेला करते थे। पत्थर कई दिनों से नदी के किनारे था। जो भी वहाँ आता अपने-अपने हिसाब से उसका उपयोग करता। एक दिन किसी शिल्पी की नजर उस पत्थर पर पड़ी। शिल्पी ने उस पत्थर को वहाँ से निकाला, अपनी वकशाप पर लाया और उसे तरासना प्रारम्भ कर दिया। कुछ ही दिनों में उसमें एक सुंदर प्रतिमा का आकार प्रकट हो गया। कल तक साधारण पत्थर अब प्रतिमा का रूप धारण कर चुका था,
संग्रह, अनुग्रह, परिग्रह और विग्रह
एक बार धरती ने वृक्ष से कहा कि मैं तुम्हें अपना रस पिलाती हूँ और तुम अपने फल-फूल औरों को लुटा देते हो; ऐसा करना तुम बंद करो। पेड़ ने धरती से विनम्रता से कहा- नहीं माता: मैं ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि मेरा तो जन्म ही औरों के उपकार के लिए हुआ है। पेड़ के इस उत्तर से धरती रूठ गई। पतझड़ आया, पेड़ का एक-एक पता झड़ गया। कल तक हरा-भरा दिखाई देने वाला पेड़ आज सूखे लूठ के रूप में परिवर्तित हो गया। धरती ने कहा अब भी चेत जाओ। पेड़ ने कहा नहीं मैं तो चाहता हूँ कि इस घड़
खालीपन, खुलापन, भरापन और भारीपन
पुराने जमाने की बात है। एक श्रेष्ठीपुत्र पिता की आज्ञा से व्यापार के लिए परदेश गया। पिता ने व्यापार के लिए आवश्यक हिदायतें दी और जाते समय उसे कुछ खाली पीपे देते हुए कहा- बेटे तू व्यापार के लिए जा रहा है, पैसे कमाएगा, रास्ते में समुद्री मार्ग आएगा कुछ परेशानियाँ, व्यवधान आ सकते हैं इन पीपों को अपने साथ रखना। सारे पीपे ऊपर से सील्ड पर अंदर से खाली थे। वह व्यापार के लिए गया, काफी पैसा कमाया, खूब धन संग्रह करके जब वह अपने घर लौट रहा था तो रास्ते में समुद्र में भे
ब्रम्हचर्य : आत्मा का नैकट्य
आज बात ब्रह्मचर्य की है। वह ब्रह्मचर्य जिसके बिना कोई साध ना फलवती नहीं होती। प्रत्येक साधना-पद्धति में ब्रह्मचर्य को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। ब्रह्म का अर्थ होता है आत्मा। आत्मा की उपलब्धि के लिए किया जाने वाला आचरण ब्रह्मचर्य कहलाता है। जो अपनी आत्मा के जितना नजदीक है वह उतना बड़ा ब्रह्मचारी है और जो आत्मा से जितना अधिक दूर है वह उतना बड़ा भ्रमचारी है। हमें ब्रह्मचारी और भ्रमचारी में भेद करके चलना है। जो ब्रह्म को पहचाने और उसका आचरण ब्रह्मचर्यमय ह