कोई भी अपने विचारों से ही भला या बुरा बनता है।
"परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्य पापयो: प्रज्ञाः" ऐसा श्री पुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा गया है। अर्थात मनुष्य जैसे अच्छे या बुरे विचार करता है वैसा स्वयं बना रहता है वह नि:संदेह बात है। विचार मनुष्य का सूक्ष्म जीवन है तो कार्यकरण उसका स्थूल रूप। मनुष्य का मन एक समुद्र सरीखा है, जिसमें कि विचार की तरंगे निरंतर चलती रहती हैं। पूर्व क्षण में कोई एक विचारों वाला होता है तो उत्तर क्षण में कोई और दूसरा। जैसे किसी को देखते ही विचारता है कि मैं इसे
हिंसा का स्पष्टीकरण
इस जीव को मार दें, पीट दें या यह मर जावे, पिट जावे, दु:ख पावे इस प्रकार के विचार का नाम भावहिंसा है और अपने इस विचार को कार्यान्वित करने के लिये किसी भी तरह की चेष्टा करना द्रव्यहिंसा है। भावहिंसा पूर्वक ही द्रव्यहिंसा होती है। बिना भाव हिंसा के द्रव्यहिंसा नहीं होती और जहां भावहिंसा होती है वहां द्रव्यहिंसा यदि न भी हो तो भी वह हिंसक या हत्यारा ही रहता है। उदाहरण के लिये मान लीजिये कि
एक शस्त्रचिकित्सक है, डॉक्टर है और वह किसी घाव वाले रोगी को नीरोग
सहानुभूति
दृष्टिपथ में आने वाले शरीरधारियों को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। (१) मनुष्य (२) पशु पक्षी। इनमें से पशु पक्षी वर्ग की अपेक्षा से आम तौर पर मनुष्यवर्ग अच्छा समझा जाता है, सो क्यों? उसमें कौनसा अच्छापन है? यही यहां देखना है। खाना-पीना, नींद लेना, डरना, डराना और परिश्रम करना आदि बातें जैसी मनुष्य में है वैसी ही पशु-पक्षियों में भी पाई जाती है। फिर ऐसी कौनसी बात है जिससे मनुष्य को पशु-पक्षियों से अच्छा समझा जाता है?
बात यह है कि मनुष्य में सहानुभूति होती है
आस्तिक्य भाव
उपासक जानता है कि जो जैसा करता है वह वैसा ही पाता है। जहर खाता है, सो मरता है और जो मिश्री खाता उसका मुँह मीठा होता है। सिंह, जो कि लोगों को बर्बाद करने पर उतारू होता है तो वह खुद ही बर्बाद होकर जंगल के एक कोने में छिप कर रहता है। गाय जो कि दूध पिलाकर लोगों को आबाद करना चाहती है इसलिये वह लोगों के द्वारा आबादी को प्राप्त होती है। लोग उसका बड़े प्यार से साथ में पालन-पोषण करते हुए पाए जाते हैं। हम देखते हैं कि जो औरों के लिये गड्ढा खोदता है वह स्वयं नीचे को जाता है किन्
करूणा का स्रोत
उपासक के उदार हृदय सरोवर में करूणा का निर्मल स्रोत निरन्तर बहता रहता है। वह अपने ऊपर आई आपत्ति को तो आपत्ति ही नहीं समझता उसे तो हँसकर टाल देता है परन्तु वह जब किसी दूसरे को आपत्ति से घिरा हुआ देखता है तो उसे सहन नहीं कर सकता है। वह उसकी आपत्ति को अपने ही ऊपर आई हुई समझता है। अतः जब तक उसे दूर नहीं हटा देता तब तक उसे विश्राम कहां?
भाण्डों ने श्रीपाल को जब अपना भाई बेटा कहकर बतलाया तो गुणमाला के पिता ने रूष्ट होकर श्रीपाल के लिये सूली का हुक्म लगा दिया
संवेगभाव
महात्मा लोगों ने निर्णय कर बताया है कि शरीर भिन्न है तो शरीरी उससे भिन्न। शरीरी चेतन और अमूर्तिक है तो शरीर जड़ और मूर्तिक, पुद्गल परमाणुओं का पिंड, जिसको कि यह चेतन अपनी कार्यकुशलता दिखाने के लिए धारण किये हुए है। जैसे बढ़ई वसोला लिए हुए रहता है काठ छीलने के लिये, सो भोंटा हो जाने पर उसे पाषाण पर घिसकर तीक्ष्ण बनाता है और उसमें लगा हुआ बैंता अगर जीर्ण-शीर्ण हो गया हो तो दूसरा बदलकर रखता है। वैसे ही उपासक भी अपने इस शरीर से भगवद्भजन और समाज सेवा सरीखे कार्य किया करता है। अतः
उपासक का प्रशमभाव
जैसा कि महात्माओं के मुंह से उसने सुना है, उसके अनुसार वह मानता है कि आत्मत्व के रूप में सभी जीव समान हैं, सबमें जानपना विद्यमान है। अव्यक्त रूप से सभी परमात्मत्व को लिए हुए हैं, प्रभुत्व शक्तियुक्त है एवं किसी के भी साथ में विरोध, वैमनस्य करना परमात्मा के साथ में विरोध करना कहा जाता है। परमात्मा से विरोध करना सो अपने आपके साथ ही विरोध करना है। अत: किसी के भी साथ में बैश्र विरोध करने की भावना ही उसके मन में कभी जागृत ही नहीं होती। उसके हृदय में तो सम्पूर्ण प्राणियों
श्रावक की सार्थकता
श्रावक शब्द का सीधा सा अर्थ होता है, सुनने वाला एवं सुनने वाले तो वे सभी प्राणी हैं जिनके कान हैं। अत: ऐसा करने से कोई ठीक मतलब नहीं निकलता। हम देखते हैं कि किसी भी पंचायत या न्यायालय में कोई पुकारने वाला पुकारता है। उसकी पुकार पर ध्यानपूर्वक विचार करके यदि उसका समुचित प्रबन्ध नहीं किया जाता है तो वह कह उठता है कि यहां पर किसकी कौन सुनने वाला है? कितना भी क्यों न पुकारों। मतलब उसका यह नहीं कि वहां सभी बहरे हैं, परन्तु सुनकर उसका ठीक उपयोग नहीं, पुकारने वाले की पीड़
स्वार्थपरता सर्वनाश की जड़ है
ऊपर लिखा गया है कि मनुष्य का जीवन एक सहयोगी जीवन है। उसे अपने आपको उपयोगी साबित करने के लिये औरों का साथ अवश्यम्भावी है, जैसे कि धागों के साथ में मिलकर चादर कहलाता है और मूल्यवान बनता है। अकेला धागा किसी गिनती में नहीं आता, वैसे ही मनुष्य भी अन्य मनुष्यों के साथ में अपना संबंध स्थापित करके शोभावान बनता है। यानी कि अपना व्यक्तित्व सुचारू करने के लिये मनुष्य को सामाजिकता की जरूरत होती है। अत: प्रत्येक मानव का कर्तव्य हो जाता है कि वह अपने आपके लिये जितना स
परिस्थिति की विषमता
किसी भी देश और प्रान्त में ही नहीं किन्तु प्रत्येक गांव तथा घर में भी आज तो प्राय: कलह, विसंवाद, ईर्षा, द्वेष आदि का आतंक छाया हुआ पाया जा रहा है। इधर से उधर चारों तरफ बुराइयों का वातावरण ही जोर पकड़ता जा रहा है, इसलिये मनुष्य अपने जीवन के चौराहे पर किकर्त्तव्यविमूढ़ हुआ खड़ा है। वह किधर जावे और क्या करे? सभी तरफ से हिंसा की भीषण ज्वालायें आकर इसे भस्म कर देना चाहती हैं। असत्य के खारे पानी से सन कर इसका कलेजा पुराने कपड़े की तरह चीर-चीर होता हुआ दीख रहा है। लूट-खस
अभिमान का दुष्परिणाम
कुछ भी न कर सकने वाला होकर भी अपने आपको करने वाला मानना अभिमान है। वस्तुतः मनुष्य कुछ नहीं कर सकता, जो कुछ होता है वह अपने-अपने कारण कलाप के द्वारा होता है। हां संसार के कितने ही कार्य ऐसे होते हैं जिनमें इतर कारणों के ही समान मनुष्य का भी उनमें हाथ होता है। एवं जिस कार्य में मनुष्य का हाथ होता है तो वह उसे अपनी विचार शक्ति के द्वारा प्रजा के लिए हानिकारक न होने देकर लाभप्रद बनाने की सोचता है, बस इसीलिये उसे उसका कर्ता कहा जाता है। फिर भी उस काम को होना, न होना य
दया का सहयोग विवेक
हाँ यह बात भी याद रखने योग्य है कि दया के साथ में भी विवेक का पुट अवश्य चाहिए। दया होगी और विवेक न होगा प्रत्युत उसके ही स्थान पर मोह होगा तो वह उस विश्व संजीवनी दया को भी संहारकारिणी बना डालेगा। मान लीजिये कि आपको बच्चे को कफ, खांसी का रोग हो गया, आप उसको आराम कराना चाहते हैं और वैद्य के पास से दवा भी दिला रहे हैं, मगर बच्चे को दही खाने का अभ्यास है, वह दही मांगता है, नहीं देते हैं तो रोता है, छटपटाता है, मानता नहीं है, तो आप उसे दही खाने को दे देंगे? अपितु नहीं द
जहां दया है वहां कोई दुर्गुण नहीं
जिन बातों के होने से प्राणी, प्रजा का विप्लवकारी साबित हो ऐसी हिंसा, असत्यभाषण चोरी, व्यभिचार, असन्तोष आदि को दुर्गुण समझना चाहिए। जहां दया होती है वहां पर इन दुर्गुणों का लेश मात्रा भी नहीं होता परन्तु जहां इनमें से कोई भी एक तो वहां पर फिर दया नहीं रह सकती है। हमारे यहां एक कथा आती है कि एक राजा था उस के दो लड़के थे। तो राजा के मरने पर बड़े लड़के को राजा और छोटे को युवराज बनाया गया। दोनों का समय परस्पर बड़े प्रेम से कटने लगा। परन्तु संयोगवश ऐसा हुआ
दया की महत्ता
किसी भी प्राणी का कोई भी तरह का कुछ भी बिगाड़ न होने पावे, सब लोग कुशलतापूर्वक अपना-अपना जीवन व्यतीत करें ऐसी रीति का नाम दया है। दयावान का दिल विशाल होता है, उसके मन में सबके लिये जगह होती है। वह किसी को भी वस्तुतः छोटा या बड़ा नहीं मानता, अपने पराये का भी भेदभाव उसके दिल से दूर रहता है। वह सब आत्माओं को समान समझता है। तभी तो वह दूसरे का दु:ख दूर करने के लिए अपने आपका बलिदान करने में भी नहीं हिचकिचाता है। एक बार की बात है कि हाई कोर्ट के एक जज साहब अपनी मोटर में सवार ह
बाल जीवन की विशेषता
एक नवजात बालक भी अपने जीवन में खाना पीना सो जाना आदि अपनी अवस्थोचित बात तो करता ही है परन्तु वह अपने सरल भाव से जो करता है और जब तक करता है फिर उसे छोड़ दूसरी बात करने लगता हो तो उसी में संलग्न हो जाता है। उसे उस समय फिर पहले वाली बात के बारे की कुछ भी चिन्ता नहीं रहा करती। जब भूख लगी कि माता के स्तनों को पकड़कर खुशी से चूसने लगता है, किन्तु जहां पेट भरा कि उन्हें छोड़कर खेलने लगता है या सो जाता है, फिर भूख लगी कि उठकर दूध पीहने लगता है एवं पेट भरा कि फिर मस्त। इस
मन की एकाग्रता कैसे प्राप्त हो?
मन को एकाग्र करना, शान्त बनाना बड़े महत्त्व की बात है, यह तो समझ में आता है परन्तु विचारों का गुब्बार हमारे इस पोले मन में भरा हुआ है उसे निकाल बाहर किये बिना मन की एकाग्रता हो कैसे? प्रथम तो इसके पास मैं यह खा लें, यह पी लें, फिर टहल लें और सो लू इत्यादि इतने विचार उपसंग्रहीत हैं कि उनका दूर करना सरल बात नहीं है और अगर कहीं प्रयास करके इन ऊपरी विचारों को दूर कर भी दिया तो यह तो मकड़े की भांति प्रतिक्षण नये विचारों को जन्म देता ही रहता है। सो उन भीतरी
मनोबल ही प्रधान बल है
वैसे तो मनुष्य के पास में ज्ञानबल, धनबल, सेनाबल, अधिकार बल और तपोबल आदि अनेक तरह के बल होते हैं, जिनके सहयोग से मनुष्य अपने कर्तव्य कार्य से इस पार से उस पार पहुंच पाता है, परन्तु उन सब बलों में शरीरबल, वचनबल और मनोबल ये तीनों बल उल्लेखनीय बल हैं।
मनुष्य को अपने सभी तरह के कार्य सम्पादन करने के लिए उसे शारीरिक बल तो अनिवार्य है। जितना भी हष्ट-पुष्ट और स्वस्थ होगा वह उतना ही प्रत्येक कार्य को सुन्दरता के साथ सम्पादित कर सकेगा, यह एक साधारण नियम है। अ
लक्ष्मी का पति
सुना जाता है कि एक बार लक्ष्मी का स्वयंवर हो रहा था। उसमें सभी लोग अपनी शान और शौरत के साथ आ सम्मिलित हुए थे। जब स्वयंवर का समय हुआ तो लक्ष्मी आयी और बोली कि मैं उसी पुरुष को वरूँगी जो कि स्वप्न में भी मेरी इच्छा न रखता हो। इस पर सब लोग बड़े निराश और हतप्रभ हो रहे। लक्ष्मी चलते-चलते अन्त में वहां पर आयी जहां पर शेषनाग की शैय्या पर विष्णु महाराज बेफिकर सोये हुए थे। आकर उसने उनके गले में वरमाला डाल दी। विष्णु बोले कौन है? तो जवाब मिला कि लक्ष्मी हूं। फिर कहा गया कि चली ज
सकामता के साथ निष्कामता का संघर्ष
माता-पिता ने सोचा इसे छोटी-सी बात कहकर मनवा लेना चाहिए, फिर तो यह खुद ही अपने दिल में आई हुई बात को भूल जावेगा। सब यही सोचकर उन्होंने कहा था कि विवाह तो करलो। इस पर जम्बू ने विचार किया कि ये माता-पिता हैं। इनका इस मेरे शरीर पर अधिकार है अतः इस साधारण सी बात के लिये नाराज करना ठीक नहीं है। वैरागी का अर्थ किसी को नाराज करना या किसी पर नाराज होना नहीं है। वह तो स्वयं आत्मावत् परमात्मा के समझा करता है। उसकी निगाहों में तो जितनी अपने आप की कीमत होती है। उ
साधु समागम
अपने विचारों को निर्मल बनाने के लिए जिस प्रकार से सत्साहित्य का अध्ययन जरूरी है उसी प्रकार अपने जीवन को सुधारने के लिए मनुष्य को समीचीन साधुओं का संसर्ग प्राप्त करना उससे भी कहीं अधिक उपयोगी होता है। मनुष्य के मन के मैल को धोने के लिए उत्तम साहित्य का पठन पाठन, जल और साबुन का काम करता है। परन्तु पुनीत साधुओं का समागम तो इसके जीवन में चमत्कार लाने के लिए वह जादू का सा कार्य करता है जैसा कि लोहे के टुकड़े के लिए पारस का संसर्ग। अत: विचारशील मनुष्य को चाहिए कि साधुओं का सम्पर
सत्साहित्य का प्रभाव
सुना जाता है कि महात्मा गांधी अपनी बैरिस्ट्री की दशा में एक रोज रेल से मुसाफिरी कर रहे थे। सफर पूरे बारह घण्टों का था। उनके एक अंग्रेज मित्र ने उन्हें एक पुस्तक देते हुए कहा कि आप अपने इस सफर को इस पुस्तक के पढ़ने से सफल कीजियेगा। उसको गांधीजी ने शुरू से आखिरी तक बड़े ध्यान से पढ़ा। उस पुस्तक को पढ़ने से गांधीजी के चित्त पर ऐसा असर हुआ कि उन्होंने अपनी बैरिस्ट्री छोड़कर उसी समय से सादा जीवन बिताना प्रारम्भ कर दिया।
आजकल पुस्तक पढ़ने का प्रचार आम जनता
व्यर्थवादी की दुर्दशा
जंगल में एक तालाब था, उसका जल ज्येष्ठ माह की प्रखर धूप से सूखकर नाम मात्र रह गया। उनके किनारे पर रहने वाले दो हंसों ने आपस में सलाह की कि अब यहां से किसी भी अन्य जलाशय पर चलना चाहिए, जिसको सुनकर उनके मित्र कछुवे ने कहा कि, “तुम लोग तो आकाश मार्ग से उड़कर चले जाओगे, परन्तु मैं कैसे चल सकता हूँ?" हंसों ने सोचा बात तो ठीक ही है और एक अपने मित्र को इस प्रकार विपत्ति में छोड़कर जाना भी भलमनसाहत नहीं है, अतः अपनी बुद्धिमता से एक उपाय सोच निकाला।
एक लम्बी
सुभाषित ही संजीवन है
जिसको सुनकर भूला भटका हुआ आदमी ठीक मार्ग पर आ जावे और मार्ग पर लगा हुआ आदमी दृढ़ता के साथ उसे अपनाकर अपने अभीष्ट को प्राप्त करने में समर्थ बन जावे उसे सुभाषित कहते हैं। यद्यपि बिना बोले आदमी का कोई भी कार्य सुचारु नहीं होता, किन्तु अधिक बोलने से भी कार्य होने के बदले वह बिगड़ जाया करता है। समय पर न बोलने वाले को मूक कहकर उसका निरादर किया जाता है, तो अधिक या व्यर्थ बोलने वाले को भी वावदूक या वाचाल कहकर भर्त्सना ही की जाती है। तुली हुई और समयोचित बात का ही दुनिया म