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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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विवाह की उपयोगिता

विवाह का मूल उद्देश्य   आजकल के नव विचारक लोगों का कहना है कि विवाह की क्या आवश्यकता है वह भी तो एक बन्धन ही तो है। बन्धन से मुक्त हो रहना मानवता का ध्येय है। फिर जानबूझकर बन्धन में पड़ा रहना कहां की समझदारी है। स्त्री और पुरुष दोनों को दाम्पत्य जीवन में विहीन होकर सर्वथा स्वतंत्र रहना चाहिए। ठीक है, विवाह वास्तव में बन्धन है परन्तु विचार यह है कि उससे मुक्त हो रहने वाला जावेगा कौन से मार्ग से? अगर वह ब्रह्मचर्य से ही रहता है जब तो ठीक है, उसे विवाह करने के लिए कौन बाध्य करता है? मगर ऐ

काम पर विजय श्रेयस्कर है

काम पर विजय श्रेयस्कर है   काम पर संस्कृत भाषा में इच्छा का पर्यायवाची माना गया है। वैसे तो मनुष्य नाना प्रकार की इच्छाओं का केन्द्र होता है किन्तु उन इच्छाओं में तीन तरह की इच्छायें प्रसिद्ध हैं। खाने की, सोने की, और स्त्री प्रसंग की। इसमें से दो इच्छायें बालकपन से ही प्रादुर्भूत होती हैं तो स्त्री प्रसंग की इच्छा युवावस्था में विकसित हुआ करती है। पहले वाली दोनों इच्छाओं को सम्पोषण देना एक प्रकार से शरीर के सम्पोषण के लिये होता है किन्तु स्त्री प्रसंग को कार्यान्वित करना केवल शरीर के

आज कल के लोगों का दृष्टिकोण

आज कल के लोगों का दृष्टिकोण   भूतल पर दो चीजें मुख्य हैं, शरीर और आत्मा। शरीर नश्वर और जड़ है। तो आत्मा शाश्वत और चेतन। इन दोनों का समायोग विशेष मानव-जीवन है। अत: शरीर को पोषण देने के लिए धन की जरूरत होती है तो आत्मा के लिए धर्म की, एवं साधक दशा में मनुष्य के लिए यद्यपि दोनों ही अपेक्षणीय हैं फिर भी हमारे बुजुर्गों की निगाह में धर्म का प्रथम स्थान था। हां, उसके सहायक साधन रूप में धन को भी स्वीकार किया जाता था। परन्तु जहां पर वह धन या उसके अर्जन करने की तरकीब यदि धर्म की घातक हुई तो उस

अदत्तादान का विवेचन

अदत्तादान का विवेचन   बलात्कार या धोखेबाजी से किसी दूसरे के धन को हड़प जाना सो अदत्तादान है। बलात्कार से दूसरे के धन को छीन लेने वाला डाकू कहलाता है, तो बहानाबाजी से किसी के धन को ले लेने वाला चोर कहलाता है। चोरी या डकैती करना किसी का जातीय धन्धा नहीं है, जो ऐसा करता है वही वैसा बना रहता है। डाकू को तो प्रायः लोग जान जाते हैं अतः उससे सावधान होकर भी रह सकते हैं मगर चोर की कोई पहचान नहीं है। अत: उससे बचना कठिन है। जो कि चोर अनेक तरह का होता है जिसके प्रचलन को चोर्य कहना चाहिये। वह भी डा

सत्य परमेश्वर है

सत्य परमेश्वर है   मैं जब बालबोध कक्षा में पढ़ रहा था तो एक दोहा मेरी किताब में आया।   साँच बरोबर तप नहीं, झूठ बरोबर पाप। जाके मन में साँच है, वाके मन में आप॥   इसमें आये हुए आप शब्द का अर्थ अध्यापक महोदय ने परमेश्वर बतलाया जो कि मेरी समझ में नहीं आया। मैं सोचने लगा साँच तो झूठ का प्रतिपक्षी है, बोलचाल की चीज है, उसका ईश्वर के साथ में क्या संबंध हुआ? परन्तु अब देखता हूं कि उनका कहना ठीक था। क्योंकि दुनियां के जितने भी कार्य हैं वे सब सत्य के भरोसे पर ही चल रह

सत्यवादी के स्मरण रखने योग्य बातें

सत्यवादी के स्मरण रखने योग्य बातें   जो सत्य का प्रेमी हो, सचाई पर भरोसा रखता हो, उसे चाहिये कि वह किसी भी की तरफदारी कभी न करे। अपने गुण अपने आप न गावे। दूसरे के अवगुण कभी प्रकट न करे। किसी की कोई गोपनीय बात कभी देखने जानने में आ जावे तो औरों के आगे कभी न कहे। हमेशा नपे तुले शब्द कहे एवं अपने आप पर काबू पाये हुए रह तभी वह अपने काम में सफल हो सकता है।   उदाहरण स्वरूप हमें यहां सत्यवादी श्री हरिश्चन्द्र का स्मरण हो आता है जो कि शयन दशा में दे डाले हुए अपने राज्य को भी त्याज्य

सत्य की पूजा

सत्य की पूजा   आमतौर पर जैसा का तैसा कहने को सत्य समझा जाता है। परन्तु भगवान महावीर ने वाचनिक सत्य की अपेक्षा मानसिक सत्य को अधिक महत्त्व दिया। हम देखते हैं कि काणे को काणा कहने पर वह चिढ़ उठता है, उसके लिये काणा कहना यह सत्य नहीं, किन्तु झूठ बन जाता है क्योंकि उसमें वह अपनी अवज्ञा मानता है। है भी सचमुच ऐसा ही। जब उसे नीचा दिखाना होता है तभी कोई उसे काणा कहता है। मानो अन्धे को अन्धा कहने वाले का वचन तो सत्य होता है फिर भी मन असत्य से घिरा हुआ होता है। क्षुद्रता को लिए हुए होता है। अन्य

अहिंसा का महात्म्य

अहिंसा का महात्म्य   जो किसी को भी कभी नहीं मारना चाहता उसे भी कोई क्यों मार सकता है। जिसकी आन्तरिक भावना निरन्तर यही रहती है कि किसी को भी कोई तरह का कष्ट कभी भी न होवे तथा इसी विचारानुसार जिसकी बाहरी चेष्टा भी परिशुद्ध होती है उसकी उस पुनीत परिणति का प्रभाव होता है कि उसके सम्मुख में आ उपस्थिति हुआ एक खूख्वार प्राणी भी जरासी देर में शान्त हो जाता है। उसके ऊपर आयी हुई आपत्ति भी उसके आत्मबल से क्षण भर में सम्पत्ति के रूप में परिणत हो जाती है। इस बात के उदाहरण हमारे पुरातन में भरे हुए ह

हिंसा के रूपान्तर

हिंसा के रूपान्तर   चीन देश में बौद्धों का निवास है, उन लोगों को विश्वास है कि किसी भी प्राणी को मार कर नहीं खाना चाहिये। मुर्दा माँस के खाने में कोई दोष नहीं है। वहां ऐसी प्रवृत्ति चल पड़ी है कि जिस बकरे वगैरह को खाने की जिसकी दृष्टि होती है वह उसके मकान में ढकेल कर कपाट बन्द कर देता है और दो चार दिन में तड़फड़ा करके जब वह मर जाता है तो उसे खा लिया जाता है। कहने को कहा जाता है कि मैंने इसे नहीं मारा है, यह तो अपने आप मर गया हुआ है। परन्तु उस भले आदमी को सोचना चाहिए कि यदि वह उसे बन्द

राजनीति और धर्मनीति

राजनीति और धर्मनीति   इन दोनों में परस्पर विरोध है। क्योंकि धर्म तो अहिंसा का पालन करने एवं इसे अन्त तक अक्षुण्ण रूप निभा दिखलाने को कहते हैं। परन्तु राजाओं का काम अपने राज्य शासन को बनाये रखना होता है। अत: उसके लिए येनकेन रूपेण अपने पक्ष को प्रबल बनाते चले जाना और अपने विरोधियों का का दमन करते रहना होता है। इसलिए राज्यसत्ता हिंसापूर्ण पापमय हुआ करती है। ऐसा कुछ लोग समझ बैठे हैं, किन्तु विचार करने पर यह ठीक प्रतीत नहीं होता है क्योंकि धर्म जो कि विश्व के कल्याण की चीज है उसे अपने जीवन

अहिंसा की निरूक्ति

अहिंसा की निरूक्ति   हिंसा के अभाव का नाम अहिंसा है। हनन हिंसा, इस प्रकार हन धातु से हिंसा शब्द निष्पन्न हुआ है जो कि हन धातु सकर्मक है। यानी किसी को भी मार देना, कष्ट पहुंचाना, सताना हिंसा है। परन्तु किसी भी अबोध बालक का पिता, गलती करते हुऐ अपने उस बच्चे की गलती सुधारने के लिए उसे डराता, धमकाता है और फिर भी नहीं मानने पर उसे मारता, पीटता है। अब शब्दार्थ के ऊपर ध्यान देने से पिता का यह काम हिंसा में आ जाता है   एवं यह हिंसक बनकर पापी ठहरता है जो कि किसी भी प्रकार किसी को भी

एक भील का अटल संकल्प

एक भील का अटल संकल्प   महाभारत में एक जगह आया है कि बाण-विद्या की कुशलता के बारे में द्रोणाचार्य की प्रसिद्धि सुनकर एक भील उनके पास आया और बोला कि प्रभो ! मुझको बाण विद्या सिखा देवें। द्रोणाचार्य ने जवाब दिया कि मैं अपनी विद्या क्षत्रिय को ही सिखाया करता हूं यह मेरा प्रण है। अत: मैं तुझे सिखाने के लिए लाचार हूं। इस भील ने कहा प्रभो ! मेरा भी यह दृढ़ संकल्प है कि मैं आप से ही विद्या सीखूंगा ऐसा बोलकर चला गया और द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर उसके आगे बाण चलाना सीखने लगा।   कुछ द

कुलक्रम निश्चित नहीं है

कुलक्रम निश्चित नहीं है   कश्यपु के प्रहल्लाद हो, अग्रसेन के कंश। फिर कोई कैसे कहै, किसका कैसा वंश॥ चिरन्तर काल से चली आई हुई इस मनुष्य परम्परा में कोई आदमी सरल स्वभाव का होता है, किन्तु उसका लड़का बिलकुल वक्र स्वभाव वाला दीख पड़ता है। और अज्ञानी बाप का लड़का अतिशय तीक्ष्ण बुद्धि वाला पाया जाता है। हिरण्यकश्यपु एकान्त नास्तिक विचार वाला था किन्तु उसी का लड़का प्रहल्लाद परम आस्तिक था। एवं महाराज उग्रसेन जो कि परम क्षत्रिय थे, प्रजा वत्सल थे उनका लड़का कंस उनके बिलकुल विपरीत उग

राम और रावण

राम और रावण   ये दोनों ही यद्यपि महाकुलोत्पन्न थे। महाशक्तिशाली थे। अनेक प्रकार के हथियारों को धारण करने वाले थे। फिर भी दोनों के कर्तव्य कार्य में बड़ा भारी अन्तर था। राम की शक्ति और उनके हथियारों का प्रयोग सदा परमार्थ, परोपकार के लिये हुआ करता था। किन्तु रावण की सारी चेष्टायें स्वार्थ भरी थीं। क्योंकि राम सुपथगामी के साथ दृढ़मना महापुरुष थे किन्तु रावण दुराभिलाषी था, मनचलेपन को लिये हुए था। श्री रामचन्द्र जी की शक्ति और हथियारों का प्रयोग सदा विश्वकल्याण के लिए हुआ करता था। किन्तु रा

अहिंसक के लिये विरोध का क्षेत्र

अहिंसक के लिये विरोध का क्षेत्र   जो अहिंसक होता है वह स्वयं तो वीर बहादुर होता है। उसे किसी से भी किसी प्रकार का डर नहीं होता। परन्तु उसने जिन बुजदिलों या बाल वृद्ध आदि लोगों को संभाल रखने का संकल्प ले रखा है, उन लोगों पर यदि कोई मनचला आदमी अनुचित आक्रमण करके गड़बड़ी मचाना चाहता है तो उसे सहन कर लेना उसके आत्मत्व से बाहर की बात हो जाती है। अतः वह उसे उस गड़बड़ी को करने से रोकता है कहता सुनता है। यदि करने सुनने से मान जावे जब तो ठीक ही है। और नहीं तो फिर बल प्रयोग द्वारा भी उसका उसे प्

जैन कौन होता है?

जैन कौन होता है?   ‘पक्षपातं जयतीति जिनः जिन एव जैनः' अर्थात् कोई भी महाशय यह तेरा है और यह मेरा, यह अच्छा है और यह बुरा। इस प्रकार के विच्छिन्न भावों को अपने मन में से निकाल बाहर कर देता है वें जो सदा सब तरफ सबके साथ एक-सी माध्यमिक व्यापक दृष्टि से देखने लगता है वह जैन कहलाता है। यह दुनियादारी का पामर प्राणी अनाया ही अपने शरीर और इन्द्रियों के सम्पोषण रूप स्वार्थ में संलग्न पाया जाता है जो कि शरीर नश्वर है। तथापित आत्मा अविनश्वर, किन्तु इसकी विचारधारा इस और नहीं जाती। यह तो अपनी मोटी

जैन वीरों की देशभक्ति

जैन वीरों की देशभक्ति   मुसलमानों ने गुजरात पर आक्रमण कर दिया। वहां के सेनापति आबूव्रती श्रावक थे। जो कि नित्य नियमपूर्वक प्रतिक्रमण किया करते थे। शत्रुओं से लड़ते-लड़ते उनके प्रतिक्रमण का समय हो गया जिसके लिए उन्होंने एकान्त स्थान पर जाना चाहा, परन्तु मुसलमानों की जबरदस्त सेना के सामने अपनी मुट्ठी भर फौज के पांव उखड़ते देखकर राष्ट्रीय सेवा के कारण रणभूमि को छोड़ना उचित न जाना और दोनों हाथों में तलवार लिए हौदे पर बैठे हुए बोलने लगें- ‘जे मे जीवा विराहिया एकगिन्दिया वा बे इन्दिया वा' इत

अहिंसा अव्यवहार्य नहीं है

अहिंसा अव्यवहार्य नहीं है   किसी को भी मारना हिंसा है, न कि मरना। क्योंकि मरना तो कभी न कभी शरीरधारी को पड़ता ही है, हां, अपने आप जान-बूझकर पर्वत से पड़कर, कूप में पड़कर, तलवार खाकर या विष भक्षण कर मरना वह मरना नहीं है, किन्तु अपने आपको मारना है। जैसे दूसरों को मारना हिंसा है वैसे ही अपने आपको मारना भी हिंसा ही नहीं बल्कि घोर हिंसा है। जिसको आत्मघात बताकर महर्षियों ने उसकी घोर निन्दा की है और जब कि मारने का नाम हिंसा है तो फिर हिंसा किये बिना निर्वाह नहीं हो सकता यह विश्वास झूठा है।

कोई किसी से जैसा कराना चाहे वैसा खुद करे

कोई किसी से जैसा कराना चाहे वैसा खुद करे   सुशिक्षिता ने देखा कि अब मेरे जुम्मे कोई खास काम नहीं रहा है तो एक दिन वह चक्की तो घर में थी ही कुछ गेहूं लेकर पीसने बैठ गई। उसे ऐसा करते देखकर सास आई और बोली कि बहू आज यह क्या कर रही है? क्या पवन चक्की दुनिया से उठ गई? ताकि तू गेहं लेकर पीसने को बैठी है? इस पर सुशिक्षित बोली कि सासूजी आप या जेठानियां और तो कुछ करने नहीं देती, खुद करने लग गई हैं तो फिर मैं क्या करूं? काम नहीं करने से शरीर आलसी बन जाता है, दिन भर निठल्ला बैठे रहने से मन में अने

अपनी भलाई ही है औरों के सुधारने के लिये

अपनी भलाई ही है औरों के सुधारने के लिये   उसने सोचा यहां पर मुख्य लड़ाई काम करने की है। इन्हें इनके विचारानुसार काम करने में कष्ट का अनुभव होता है ये सब अपने को आलसी बनाये रखने में ही सुखी हुआ समझती हैं, यदि घर के धन्धों को मैं मेरे हाथ से करने लग जाऊँ तो अच्छा हो, मेरा शरीर भी चुस्त रहे और इन लोगों का आपस का झगड़ा भी मिट जाये, एक तीर्थ और दो काज वाली बात है। अब रोज एक जब कि सब जनी भोजनपान के अनन्तर आकर एक जगह बैठी तो सुशिक्षिता ने कहा कि सासूजी और जीजीबाइयो सुनो, मेरे रहते हुये आप लोग

पुराने समय की बात

पुराने समय की बात   एक शाही घराना था। सेठ सेठानी प्रौढ अवस्था पर थे। जिन के पांच लड़के और सबसे छोटी लड़की थी। बड़े चारों लड़कों की शादियां होकर उनके बाल बच्चे भी हो गये थे। छोटे लड़के की भी शादी तो हो गई थी मगर बहू अभी अपने पिता के यहां ही थी। यहां घर पर एक कन्या चार बहुयें और एक सास इस प्रकार छह औरतें थी जो सब मिलजुल कर घर का कार्य चलाना चाहती तो अच्छी तरह से चला सकती थी परन्तु परस्पर प्रेम का अभाव होने से तेरे मेरे में ही उनका अधिकांश समय बरबाद हो जाता था।   एक सोचती थी कि

अहिंसा के दो पहलू और उसकी सार्थकता

अहिंसा के दो पहलू और उसकी सार्थकता   किसी को नहीं मारना चाहिये या कष्ट नहीं देना यह अहिंसा का एक पहलू है; तो दूसरा पहलू है कि किसी भी कष्ट में पड़े हुये के कष्ट को निवारण करने का यथाशक्य प्रयत्न करना। ये दोनों ही बातें साधक में एक साथ होना चाहिये तभी वह अहिंसक बन सकता है। अधिकांश देखने में आता है कि आज की दुनिया के लोग कीड़े-मकोड़े सरीखों को ही मारने में पाप समझते हैं। कर्तव्य पथ प्रदर्शन तो ठीक है परन्तु किसके साथ में कैसा व्यवहार करना चाहिये;   मेरे इस बर्ताव से सामने वाला

अहिंसा की आवश्यकता

अहिंसा की आवश्यकता   जैसे पापों में सबसे मुख्य हिंसा है वैसे ही धर्माचरणों में सबसे पहला नम्बर अहिंसा का है। जिस किसी के दिल में हिंसा से परहेज या अहिंसा भाव नहीं है तो समझ लेना चाहिये कि वहां सदाचार का नामोनिशान भी नहीं है। अहिंसा का सीधा सा अर्थ है, किसी भी प्राणी का वध नहीं करना। जीना सबको प्रिय है, मरना कोई नहीं चाहता। अतः अहिंसा कम से कम अपने आपके लिये सबको अभीष्ट है। जो खुद अहिंसा को पसन्द करे परन्तु औरों के लिये हिंसामय प्रयोग करे उसे प्रकृति मंजूर नहीं करती, रूष्ट ही रहती है। ज
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