लेखनी लिखती है कि-
कभी-कभी ऐसा भी होता है
एक शिष्य गलती पर गलती करता
फिर भी गुरु स्नेह उँडेलता
लगता है स्थूल बुद्धि वालों को
शायद गुरु को कोई स्वार्थ है
सूक्ष्मता से देखो तो स्वार्थ नहीं
कुछ तो खास बात है।
चंचल नादान बालक का
माँ भी रखती विशेष ध्यान
कहीं और बिगड़ न जाये,
सँभल जाये इसीलिए करती ख्याल
डाँट लगाने के योग्य नहीं यह
सुधरना है तो प्रेम से सुधर जाये।
दूसरा शिष्य विनय से रहता
फिर भी गुरु उसे अपने से दूर रखता
यहाँ गुरु को गलत मत समझना
गुरु के गुरुत्व पर प्रश्न मत करना
गुरु को पूर्ण भरोसा है उस पर
एक दिन पहुँच जायेगा गंतव्य तक।
मात्र गुरु का स्नेह पाने जो शिष्य बनते हैं
वे बीच पथ में ही अटकते हैं
गुरु तो ध्यान रखते सबका
किसी को मलाई तो किसी को पानी डालकर
दूध पिलाती है माँ
वैसे ही गुरु अपने साथ चलाकर
परम पिता प्रभु से मिलाकर
दिशा बताकर दशा बदल कर
खोया हुआ दिलाकर
अपने से मिला देते हैं,
गुरु का गूढ़ रहस्य
अंतेवासिन् ही समझ पाते हैं।
सुना है ज्ञानसिंधु गुरुवर, शिष्य विद्याधर से
बहुत कम बात करते थे;
क्योंकि वे अपने में समर्थ हैं
ऐसा वे जानते थे।