लेखनी लिखती है कि-
स्वयं को गुरु से विशेष मानने वाला
सामान्य ही बनकर रह जाता है
अभी नहीं तो कभी
साधारण योनि में जन्म पाता है।
खान के हीरे पाने के पहले
कई कठोर पत्थरों को तोड़ना पड़ता है
और स्वयं को विशेष होने के पहले
सहज सरल होना पड़ता है।
गुरु की शिकायत करने वाला
शिष्य हो नहीं सकता,
और स्वयं की कमी देखने वाला
गुरु को कभी खो नहीं सकता।
गुरु जो आज्ञा देता वह मानवश नहीं
और शिष्य जो सेवा करता दीनतावश नहीं
इस संबंध को समझने गहरी आँख चाहिए
अंतर्मन में गहन प्यास चाहिए
शब्दों से इसे बाँधा नहीं जा सकता
लेखनी से इसे लिखा नहीं जा सकता
कितना ही कहो शेष रह ही जाता
कितना ही लिखो विशेष लिख नहीं पाता।
इस रिश्ते में राग-द्वेष की चर्चा नहीं
लाभ-हानि की वार्ता नहीं
कोई किसी को अपना बनाता नहीं
गुरु शिष्य का और शिष्य गुरु का
बस हो जाता है
दृढ़ होता यह संबंध निस्वार्थ भाव से
कौन किसमें कब खो जाता है ?
शिष्य अपना सब दे देता है
या यूँ कहें कि सब पा लेता है
बाहर में कुछ दिखता नहीं
भीतर ही भीतर कब क्या हो जाता है
पता नहीं चलता,
पर सब कुछ घटित होता है यह
जब शिष्य विद्याधर-सा हो
और गुरु ज्ञानसागर-सा।