लेखनी लिखती है कि-
सवाल अजीब-सा है
कैसे जाने कौन हैं सच्चे गुरुवर
यदि सही या गलत कसौटी पर
परखने लगे गुरु को शिष्य ही
तो फिर शिष्य, शिष्य ही कहाँ रह पायेगा ?
वह तो गुरु को परखने वाला
गुरु का ही गुरु हो जायेगा।
लेकिन कहा है इस संदर्भ में-
“बिन जाने ते दोष गुनन को कैसे तजिये गहिये"
तो क्या गुरु की पहचान न करें ?
अटपटी उलझन है समाधान न करें ?
इसका उत्तर सीधा-सा है
जिनकी पहचान से स्वयं की हो जाये पहचान
जिनसे प्राप्त ज्ञान से
स्वयं का हो अवधान
बस वही हैं गुरु महान्।
अलौकिक गुरु को परखा नहीं जाता
जिनके निकट आ निज को निरख जब लेता
तो समझ लेना गुरु की परख हो गई,
वास्तव में यह शिष्य के बस की बात नहीं है
सदगुरु के द्वारा ही गुरु की पहचान हो गई।
इसमें शिष्य को सँभलना होता है;
क्योंकि ज्ञान का मान हो सकता है
तभी सँभालते हैं गुरु शिष्य को
मान का ज्ञान कराते उसको
यों ही कदम दर कदम शिष्य चलता चला जाता
देख शिष्य की आत्मोन्नति गुरु को होती प्रसन्नता।
ज्यों विद्याधर की उन्नति देख
गुरु श्रीज्ञानसागरजी गौरवान्वित हुए
भले ही नहीं आज भूपर ज्ञानसिंधु
पर श्रीविद्यासागरजी गुरु ही ज्ञानसिंधु हो गये।