१०८ संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी मुनि महाराज के चरणों में कोटिश: नमन
नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु गुरुवर -अभिषेक जैन 'अबोध' स-परिवार
विद्या गुरू है सूर्य सम
जो नित प्रति करे प्रकाश
मैं मूरख अज्ञानी रहा
जो बुझा न पाया मन की प्यास।।
जीवन में गुरु मिल गये
मिला आश-विश्वास
इससे ज्यादा क्या चाहना
विद्या के सागर तेरे पास।।
अर्थ काम पुरुषार्थ सब
चंचल मन की आश
सुख सारे पा जायेगा
यदि मन हो तेरा दास।।
व्यर्थ भटकता फिर रहा
मनुज अर्थ की ओर
सुख रूपी अमृत मिलें
मन हो परमार्थ की ओर।।
मोह-माया के फेर में
फसा ये मन अंजान
जिसको अपना मानता
छूटेगा सब संसार।।
दोष व्यर्थ ही हम गिनें
मन दूजो की ओर
अन्तर्मन में झाकले
जीवन तेरा किस ओर।।
मन हो बालक सम सदा
नहीं किसी से वैर
दो पल आसूँ आँख में
दो पल में सब खेर।।
मानव तन तुझको मिला
मिला ज्ञान पर अधिकार
व्यर्थ भटकता क्यों फिरे
बनकर मन का दास।।
सबकुछ तेरे पास में
फिर क्यों फिरे उदास
सोच बदल देखो जरा
मिलें खुसियोँ की सौगात ।।
प्रेम स्वयं से हो सदा
हो खुद पर विश्वास
लक्ष्य सदा मन में बसे
सफलता तेरे पास।।
जिसके मन में प्यास है
नदियाँ उसके पास
वह प्यासा ही रह गया
छोड़ा जिसनें खुद पर विश्वास।।
गुरु चरणों में मिला मुझें
इस जीवन का सार
भटक रहा था व्यर्थ ही
ले क्षणभंगुर सपनों की आश।।
जानें कौन सी डोर है
जो खीचे गुरु की ओर
मन पगला बौरा रहा
ले चल मुझको प्रभु के छोर।।
आशायों की डोर
गुरूचरणों की ओर
मन में नाचें मोर
इक दिन होगी भोर।।
नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु गुरुवर
-अभिषेक जैन 'अबोध' स-परिवार