108 आचार्य श्री विद्यासागर जी मुनि महाराज के चरणों में सत-सत नमन-वंदन
नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु गुरुवर -अभिषेक जैन सा-परिवार
विद्याधर से विद्यासागर
ज्यों एक गागर में सागर
श्रावक श्रेष्ठि करोड़ीमल जी
एकदिन एक बालक को लेकर
पहुँचे आ. ज्ञान सागर की आगर
हाथ जोड़ कर शीश नवाया,
विनय भाव था मन में छाया
गुरु शिष्य मिलनें को आतुर
किंतु बिना परीक्षा, द्वार न
खुलता, श्रावक बोलें वचन
सुनाकर, दक्षिण से आया है
विद्याधर, ज्ञान ज्योती की प्यास
हृदय में, एक अटूट विश्वास संजोये
गुरुवर थोड़ा-सा मुस्कायेँ, ज्ञान प्राप्ती
कर उड़ जायोगे, क्या तुम यहाँ ठहर
पायोगे, शब्द बाणों ने हृदय को भेदा
छोड़ा पल में वाहन इत्यादी, गुरु शरण
के सच्चे अनुरागी, ब्रह्मचर्य के थे पालक
मोक्ष रमा के भावी आराधक, मन में संशय
तनिक नहीं था, गुरु चरणों में शीश झुकाया
मुनि विद्यानंदी सम बनने का आशीष है
पाया, न्याय शास्त्र के जो विख्याता,
जैन धर्म के सच्चें ज्ञाता, आज बही गुरुवर है
मेरे, भारत वर्ष नहीं सम्पूर्ण विश्व गुरूवर कहलों
भक्ति भाव वश शुभ चरणों में रह लों, यही शरण है,
यहीँ मोक्ष है, यहीं धर्म है, त्याग यही है, गुरुवर चरणों
में शीश नवाऊं, चरण धूल माथे पर चाहूँ, आशीष मिलें
सौभाग्य जगे, बस प्रभु इतना ही चाहूँ ।।
सविनय नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु गुरुवर
-अभिषेक जैन सा-परिवार