अंखियों के झरोखे से, मैंने देखा जो सामने
गुरु दूर नजर आये, बड़ी दूर नजर आये।
बंद करके झरोखों को, जरा बैठी जो ध्यान में
मन में गुरु मुस्काये ऽऽऽ, मन में वही मुस्काये
अंखियों के..............
गुरु भक्ति में गुरु ध्यान में, मन खोने लगा है-2
संसार के दुख जाल में, हँस रोने लगा है।
जिनवर के भरोसे पर, सब बैठी हूँ भूल के-2
यूँ ही उम्र गुजर जाये, लेके नाम गुजर जाये
अंखियों के..............
मैं जब से विद्यागुरु के, रंगों में रंगी हूँ-2
सोई हुई आशा मेरी, कहती है जगी हूँ।
मेरी मुक्ति का ये सपना, कहीं कोई न तोड़ दे-2
मन सोच के घबराये ऽऽ, यही सोच के घबराये
अंखियों के.................
माना मेरी पर्याय में मुक्ति तो नहीं है-2
पर हार के चुप बैठना युक्ति भी नहीं है।
मेरी मुक्ति का ये लिखा जाऊँगी मैं रोप के-2
संभव है किसी भव में, मुक्ति भी मिल जाए।
अंखियों के..................
माना कि मेरी पर्याय में मुक्ति तो नहीं है।
पर हार के चुप बैहूँ कोई मुक्ति भी नहीं है।
मुक्ति का ये सिक्का, जाऊँगी मैं रोप के
संभव है किसी भव में मैं मुक्ति को भी पा जाऊँ
अंखियों के...............