रत्नत्रय से पावन जिनका
यह औदारिक तन है।
गुप्ति समिति अनुप्रेक्षा में रत,
रहता निशदिन मन है॥
सन्मति युग के ऋषि-सा जिनका,
बीत रहा हर क्षण है।
त्याग तपस्या लीन यति अरु,
प्रवचन कला प्रवण है॥
जिनकी हितकर वाणी सुनकर,
सबका चित्त मगन है।
जिनके पावन दर्शन पाकर,
शीतल हुई तपन है॥
तत्वों का होता नित चिंतन,
मंथन और मनन है।
विद्या के उन सागर को,
मम शत्-शत् बार नमन् है॥
मम शत्-शत् बार नमन् है,