'संत कबीर'
-अभिषेक जैन 'अबोध'
रमता 'राम' मिले कहाँ, निर्गुण धर्म प्रकाश।
जग-जग में प्रभु ढूढ़ता, कविरा तेरा दास।१।
कविरा एकौ जानिए, कहिए राम-रहीम।
अंतर सब बाहरि दिखें, गुण निर्मल ज्यों नीम।२।
प्रभुभक्ती मुझकों मिली, निराकार तव रूप।
प्रभू 'राम' घट-घट वसे, सूरज से ज्यों धूप।३।
कविरा संगति साधु की, हरे जगत की पीर।
मनवा क्यों रोगी भया, आँख बहाए नीर।४।
कविरा 'रामहु' मिल गए, औरन की, का ठौर।
मन निर्मल जबसे भयों, नाचें मनवा मोर।५।
हिन्दु-मुस्लिम लड़ी रयो, भूल हृदय को प्रेम।
दुखियाँ सब संसार में, गले लगें सप्रेम।६।
भेदभाव सब भूलकर, सत्य-अहिंसा धर्म।
कविरा जग में वो सुखी, जाना जिसने मर्म।७।
पीर पराई जो हरे, पा जाए सुखधाम।
करुणा मन में जब जगें, मिल जाएंगे राम।८।
कविरा मन पँछी भयों, भटक रहा चहुँओर।
नेह हृदय में पालिए, मिले प्रभू का ठौर।९।
सादर
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अभिषेक जैन 'अबोध'
भेल भोपाल
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