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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • आचार्य विद्यासागर जी द्वारा हायकू छन्द


     

     

    दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज इन दिनों (Japanese Haiku, 俳句 ) जापानी हायकू (कविता) की रचना करते हैं | हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में ५ अक्षर, दूसरी पंक्ति में ७ अक्षर, तीसरी पंक्ति में ५ अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। महाकवी आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने लगभग ६००  हायकू लिखे हैं, वह  इस प्रकार हैं :-

    ratnatray haiku-1.jpg

     

    sakriya samyak darshan-1.jpg

    haiku.jpg

     

     

      

     

     जुड़ो ना जोड़ो

    १‍ .

    जोड़ा छोड़ो जोड़ो तो

     

    बेजोड़ जोड़ो।

       
     

    संदेह होगा

    २ .

    देह है तो देहाती !

     

    विदेह हो जा |

       
     

    ज्ञान प्राण है

    ३ .

    संयत हो त्राण है

     

    अन्यथा श्वान|

       
     

     छोटी दुनिया

    ४ .

    काया में सुख दुःख

     

    मोक्ष नरक |

       
     

     द्वेष से बचो

    ५ .

    लवण दूर रहे

     

    दूध न फटे |

       
     

     किसी वेग में

    ६ .

    अपढ़ हों या पढ़े

     

    सब एक हैं |

       
     

     तेरी दो आँखें

    ७ .

    तेरी ओर हज़ार

     

    सतर्क हो जा |

       
     

     चाँद को देखूँ

    ८ .

    परिवार से घिरा

     

    सूर्य सन्त है |

       
     

     मैं निर्दोषी हूँ

    ९ .

    प्रभु ने देखा वैसा

     

    किया करता।

       
     

     आज्ञा का देना

    १‍० .

    आज्ञा पालन से है

     

    कठिनतम।

       
     

     तीर्थंकर क्यों

    १‍१‍ .

    आदेश नहीं देते

     

    सो ज्ञात हुआ।

       
     

     साधु वृक्ष है

    १‍२ .

    छाया फल प्रदाता

     

    जो धूप खाता।

       
     

     गुणालय में

    १‍३ .

    एकाध दोष कभी

     

    तिल सा लगे।

       
     

     पक्ष व्यामोह

    १‍४ .

    लौह पुरुष के भी

     

    लहू चूसता।

       
     

     पूर्ण पथ लो

    १‍५ .

    पाप को पीठ दे दो

     

    वृत्ति सुखी हो।

       
     

     भूख मिटी है

    १‍६ .

    बहुत भूख लगी

     

    पर्याप्त रहे।

       
     

     टिमटिमाते

    १‍७ .

    दीपक को भी देख

     

    रात भा जाती।

       
     

     परिचित भी

    १‍८ .

    अपरिचित लगे

     

    स्वस्थ्य ध्यान में (बस हो गया)।

       
     

     प्रभु ने मुझे

    १‍९ .

    जाना माना परन्तु

     

    अपनाया ना।

       
     

     कलि न खिली

    २० .

    अंगुली से समझो

     

    योग्यता क्या है ?

       
     

     आँखें लाल हैं

    २१‍ .

    मन अन्दर कौन ?

     

    दोनों में दोषी ।

       
     

     इष्ट - सिद्धि में

    २२ .

    अनिष्ट से बचना

     

    दुष्टता नहीं।

       
     

     सामायिक में

    २३ .

    कुछ न करने की

     

    स्थिति होती है।

       
     

     मद का तेल

    २४ .

    जल चुका सो बुझा

     

    विस्मय दीप।

       
     

     ध्वजा वायु से

    २५ .

    लहराता पै वायु

     

    आगे न आती।

       
     

     ज्ञेय चिपके

    २६ .

    ज्ञान चिपकाता सो

     

    स्मृति हो आती।

       
     

     तैराक बना

    २७ .

    बनूँ गोताखोर सो

     

    अपूर्व दिखे।

       
     

     वर्षा के बाद

    २८ .

    कड़ी मिट्टी सी माँ हो

     

    दोषी पुत्र पे।

       
     

     कछुवे सम

    २९ .

    इन्द्रिय संयम से

     

    आत्म रक्षा हो।

       
     

     डूबना ध्यान

    ३० .

    तैरना स्वाध्याय है

     

    अब तो डूबो।

       
     

     गुरु मार्ग में

    ३१‍ .

    पीछे की वायु सम

     

    हमें चलाते।

       
     

     संघर्ष में भी

    ३२ .

    चंदन सम सदा

     

    सुगन्धि बाटूँ।

       
     

     प्रदर्शन तो

    ३३ .

    उथला है दर्शन

     

    गहराता है।

       
     

     योग साधन

    ३४ .

    है उपयोग शुद्धि

     

    साध्य सिद्ध हो।

       
     

     योग प्रयोग

    ३५ .

    साधन है साध्य तो

     

    सदुपयोग।

       
     

     धर्म का फल

    ३६ .

    बाद में न अभी है

     

    पाप का क्षय।

       
     

     पर पीड़ा से

    ३७ .

    अपनी करुणा सो

     

    सक्रिय होती।

       
     

     सीना तो तानो

    ३८ .

    पसीना तो बहा दो

     

    सही दिशा में।

       
     

     प्रश्नों से परे

    ३९ .

    अनुत्तर है उन्हें

     

    मेरा नमन।

       
     

     फूल खिला पै

    ४० .

    गंध न आ रही सो

     

    काग़ज़ का है |

       
     

     सरोवर का

    ४१‍ .

    अन्तरंग छुपा है ?

     

    तरंग वश।

       
     

     मान शत्रु है

    ४२ .

    कछुवा बनूँ बचूँ

     

    खरगोश से।

       
     

     हायकू कृति

    ४३ .

    तिपाई सी अर्थ को

     

    ऊँचा उठाती।

       
     

     अधूरा पूरा

    ४४ .

    सत्य हो सकता है

     

    बहुत नहीं।

       
     

     भूख लगी है

    ४५ .

    स्वाद लेना छोड़ दें

     

    भर लें पेट।

       
     

     ज्ञानी कहता

    ४६ .

    जब बोलूँ अपना

     

    स्वाद छूटता।

       
     

     गुरु ने मुझे

    ४७ .

    प्रकट कर दिया

     

    दीया दे दिया।

       
     

     नीर नहीं तो

    ४८ .

    समीर सही प्यास

     

    कुछ तो बुझे।

       
     

     निजी प्रकाश

    ४९ .

    किसी प्रकाशन में

     

    कभी दिखा है ?

       
     

     जितना चाहो

    ५० .

    जो चाहो जब चाहो

     

    क्या कभी मिला ?

       
     

     वैधानिक तो

    ५१‍ .

    पहले बनो फिर

     

    धनिक बनो।

       
     

     टिमटिमाते

    ५२ .

    दीप को भी पीठ दे

     

    भागती रात ।

       
     

     रोगी की नहीं

    ५३ .

    रोग की चिकित्सा हो

     

    अन्यथा भोगो।

       
     

     देखा ध्यान में

    ५४ .

    कोलाहल मन का

     

    नींद ले रहा।

       
     

     मिट्टी तो खोदो

    ५५ .

    पानी को खोजो नहीं

     

    पानी फूटेगा।

       
     

     सुनना हो तो

    ५६ .

    नगाड़े के साथ में

     

    बाँसुरी सुनो।

       
     

     मलाई कहाँ

    ५७ .

    अशान्त दूध में सो

     

    प्रशान्त बनो।

       
     

     कब पता न

    ५८ .

    मरण निश्चित है

     

    फिर डर क्यों ?

       
     

     भरा घट भी

    ५९ .

    खाली सा जल में सो

     

    हवा से बचो।

       
     

      नौ  मास उल्टा

    ६० .

    लटका आज तप

     

    (रहा पेट में) कष्टकर क्यों?

       
     

     मोक्षमार्ग तो

    ६१‍ .

    भीतर अधिक है

     

    बाहर कम।

       
     

     गूँगा गुड़ का

    ६२ .

    स्वाद क्या नहीं लेता ?

     

    वक्ता क्यों बनो?

       
     

     कमल खिले

    ६३ .

    दिन के ग्रहण में

     

    करबद्ध हों।

       
     

     पैर उठते

    ६४ .

    सीधे मोही के भी पै

     

    उल्टे  पड़ते।

       
     

     भूत सपना

    ६५ .

    वर्तमान अपना

     

      भावी कल्पना

       
     

     काले मेघ भी

    ६६ .

    नीचे तपी धरा को

     

    देख रो पड़े।

       
     

     घी दूध पुन:

    ६७ .

    बने तो मुक्त पुन:

     

    हम से रागी।

       
     

     उससे डरो

    ६८ .

    जो तुम्हारे क्रोध को

     

    पीते ही जाते।

       
     

     शून्य को देखूँ

    ६९ .

    वैराग्य बढ़े 'बढ़े'

     

    नेत्र की ज्योति।

       
     

     पौधे न रोपे

    ७० .

    छाया और चाहते

     

    निकम्मे से हो। (पौरुष्य नहीं)

       
     

     उनसे मत

    ७१‍ .

    डरो जिन्हें देख के

     

    पारा न चढ़े।

       
     

     क्या सोच रहे ?

    ७२ .

    क्या सोचूँ ? जो कुछ है

     

    कर्म के धर्म।

       
     

     तुम्बी तैरती

    ७३ .

    औरों को भी तारती

     

    छेद वाली क्या ?

       
     

     आलोचन से

    ७४ .

    लोचन खुलते हैं

     

    सो स्वागत है।

       
     

     दुग्ध पात्र में

    ७५ .

    नीलम सा जीव है

     

    तनु प्रमाण ।

       
     

     स्वानुभव की

    ७६ .

    समीक्षा पर करें

     

    तो आँखें सुने।

       
     

     स्वानुभव की

    ७७ .

    प्रतिक्षा स्व करे तो

     

    कान देखता।

       
     

     मूल बोध में

    ७८ .

    बड़ की जटायें सी

     

    व्याख्यायें न हो।

       
     

     मन अपना

    ७९ .

    अपने विषय में

     

    क्यों न सोचता ?

       
     

     स्थान समय

    ८० .

    दिशा आसन इन्हें

     

    भूलते ध्यानी।

       
     

     चिन्तन न हो

    ८१‍ .

    तो चिन्ता मत करो

     

    चित्त्स्वरुपी हो।

       
     

     एक आँख भी

    ८२ .

    काम में आती पर

     

    एक पंख क्या ?

       
     

     नय-नय है

    ८३ .

    विनय पुरोधा (प्रमुख) है

     

    मोक्षमार्ग में।

       
     

     सम्मुख जा के

    ८४ .

    दर्पण देखता तो (दर्पण में देखा पै)

     

    मैं नहीं दिखा।

       
     

     पाषाण भीगे

    ८५ .

    वर्षा में हमारी भी

     

    यही दशा है।

       
     

     आपे में न हो (नहीं)

    ८६ .

    तभी तो अस्वस्थ हो

     

    अब तो आओ।

       
     

     दीप अनेक

    ८७ .

    प्रकाश में प्रकाश

     

    एक मेक सा।

       
     

     होगा चाँद में

    ८८ .

    दाग चाँदनी में ना

     

    ताप मिटा लो ।

       
     

     प्रतिशोध में

    ८९ .

    ज्ञानी भी अन्धा होता

     

    शोध तो दूर।

       
     

     निद्रा वासना

    ९० .

    दो बहनें हैं जिन्हें

     

    लज्जा न छूती।

       
     

     जिस बोध में

    ९१‍ .

    लोकालोक तैरते

     

    उसे नमन।

       
     

     उजाले में हैं

    ९२ .

    उजाला करते हैं

     

    गुरु को वंदूँ ।

       
     

     उन्हें जिनके

    ९३ .

    तन-मन नग्न हैं

     

    मेरे नमन।

       
     

     शिव पथ के

    ९४ .

    कथक वचन भी

     

    शिरोधार्य हो।

       
     

     व्यंग का संग

    ९५ .

    सकलांग से नहीं

     

    विकलांग से।

       
     

     कुछ न चाहूँ

    ९६ .

    आप से आप करें

     

    बस ! सद्ध्यान।

       
     

     बड़ तूफाँ में

    ९७ .

    शीर्षासन लगाता

     

    बेंत झुकता।

       
     

     आशा जीतना

    ९८ .

    श्रेष्ठ निराशा से तो

     

    सदाशा भली।

       
     

     समानान्तर

    ९९ .

    दो रेखाओं में मैत्री

     

    पल सकती।

       
     

     प्राय: अपढ़

    १‍०० .

    दीन हो पढ़े मानी

     

    ज्ञानी विरले।

       
     

     कच्चा घड़ा है

    १‍०१‍ .

    काम में न लो बिना

     

    अग्नि परीक्षा।

       
     

     पक्षी कभी भी

    १‍०२ .

    दूसरों के नीड़ों में

     

    घुसते नहीं।

       
     

     तरंग देखूँ

    १‍०३ .

    भंगुरता दिखती

     

    ज्यों का त्यों ‘तोय’।

       
     

     बिना प्रमाद

    १‍०४ .

    श्वसन क्रिया सम

     

    पथ पे चलूँ।

       
     

     दृढ़-ध्यान में

    १‍०५ .

    ज्ञेय का स्पन्दन भी

     

    बाधक नहीं।

       
     

     शब्द पंगु है

    १‍०६ .

    जवाब न देना भी

     

    लाजवाब है।

       
     

     पराश्रय से

    १‍०७ .

    मान बोना हो कभी

     

    दैन्य-लाभ भी।

       
     

     वक़्ता व श्रोता

    १‍०८ .

    बने बिना गूँगा सा

     

    निजी-स्वाद ले।

       
     

     नियन्त्रण हो

    १‍०९ .

    निज पे  दीप बुझे

     

    निजी श्वाँस से।

       
     

     अपना ज्ञान

    १‍१‍०  .

    शुध्द-ज्ञान न जैसे

     

     वाष्प पानी न।

       
     

      औरों को नहीं

    १‍१‍१ ‍ .

    प्रभु को देखूँ तभी

     

    मुस्कान बाटूँ।

       
     

     अपमान को

    १‍१‍२  .

    सहता आ रहा है

     

    मान के लिए।

       
     

      मान चाहूँ ना

    १‍१‍३  .

    पै अपमान अभी

     

    सहा न जाता।

       
     

     यशोगन्ध की

    १‍१‍४  .

    प्यासी नासा स्वयं तू

     

    निर्गन्धा है री !

       
     

      दमन चर्म

    १‍१‍५  .

    चक्षु का हो नमन

     

    ज्ञान चक्षु को।

       
     

      गाय बताती

    १‍१‍६  .

    तप्त-लोह पिण्ड को

     

    मुख में ले ‘सत्’।

       
     

      कुछ स्मृतियाँ

    १‍१‍७  .

    आग उगलती तो

     

    कुछ सुधा सी।

       
     

      मरघट में

    १‍१‍८  .

    घूँघट का क्या काम?

     

    घट कहाँ है ?

       
     

      पुण्य-फूला है

    १‍१‍९  .

    पापों का पतझड़

     

    फल अनंत । (अमाप)

       
     

     गन्ध सुहाती

    १‍२० .

    निम्ब-पुष्पों की स्वाद

     

    उल्टी कराता ।

       
     

     युवा कपोल

    १‍२१‍ .

     कपो  कल्पित है

     

    वृद्ध-बोध में।

       
     

     लोहा सोना हो

    १‍२२ .

    पारस से परन्तु

     

    जंग लगा क्या ?

       
     

     गुणी का पक्ष

    १‍२३ .

    लेना ही विपक्ष पे

     

    वज्रपात है।

       
     

     बिना डाँट के

    १‍२४ .

    शिष्य और शीशी का

     

    भविष्य ही क्या ?

       
     

     प्रकाश में ना…

    १‍२५ .

    प्रकाश को पढ़ो तो

     

    भूल ज्ञात हो।

       
     

     देख सामने

    १‍२६ .

    प्रभु के दर्शन हैं

     

    भूत को भूल…

       
     

     दीन बना है

    १‍२७ .

    व्यर्थ में बाहर जा

     

    अर्थ है स्वयं।

       
     

     काल की दूरी

    १‍२८ .

    क्षेत्र दूरी से और

     

    अनिवार्य है।

       
     

     दर्प को छोड़

    १‍२९ .

    दर्पण देखता तो

     

    अच्छा लगता।

       
     

     घनी निशा में

    १‍३० .

    माथा भयभीत हो

     

     'आस्था' आस्था है।

       
     

     बिन्दु जा मिला

    १‍३१‍ .

    सभी मित्रों से जहाँ

     

     सिन्धु वही है।

       
     

     आगे बनूँगा

    १‍३२ .

    अभी प्रभु-पदों में

     

    बैठ तो जाऊँ।

       
     

     रस-रक्षक

    १‍३३ .

    छिलका सन्तरे का

     

    अस्तित्व ही क्या ?

       
     

     छोटा भले हो

    १‍३४ .

    दर्पण मिले साफ़

     

    खुद को देखूँ।

       
     

     पराग-पीता

    १‍३५ .

    भ्रमर फूला फूल

     

    आतिथ्य  प्रेमी।

       
     

     बोधा-काश में

    १‍३६ .

    आकाश तारा सम

     

    प्रकाशित हो।

       
     

     पराकर्षण

    १‍३७ .

    स्वभाव सा लगता

     

    अज्ञानवश।

       
     

     भ्रमर से हो

    १‍३८ .

    फूल सुखी हो दाता

     

    पात्र-योग से।

       
     

     तारा दिखती

    १‍३९ .

    उस आभा में कभी

     

    कुछ दिखी क्या ?

       
     

     सुधाकर की

    १‍४० .

    लवणाकर से क्यों ?

     

    मैत्री क्या राज ?

       
     

     बाहर नहीं

    १‍४१‍ .

    वसन्त बहार तो

     

    सन्त ! अन्दर…

       
     

     तार न टूटी

    १‍४२ .

    लगातार चिर से

     

    चैतन्य-धारा।

       
     

     सुई निश्चय

    १‍४३ .

    कैंची व्यवहार है

     

    दर्ज़ी-प्रमाण।

       
     

     चलो बढ़ो औ

    १‍४४ .

    कूदो उछलो यही

     

    धुआँधार है।

       
     

     बिना चर्वण

    १‍४५ .

    रस का रसना का

     

    मूल्य ही क्या है ?

       
     

     ख़ाली बन जा

    १‍४६ .

    घट डूबता भरा…

     

    ख़ाली तैरता।

       
     

     साष्टांग सम्यक्

    १‍४७ .

    शान चढ़ा हीरा सा

     

    कहाँ दिखता ?

       
     

     निजी पराये

    १‍४८ .

    वत्सों को दुग्ध-पान

     

    कराती गौ-माँ।

       
     

     छोटा सा हूँ मैं

    १‍४९ .

    छोर छूती सी तृष्णा

     

    छेड़ती मुझे।

       
     

     रसों का भान

    १‍५० .

    जहाँ न रहे वहाँ

     

    शान्त-रस है।

       
     

     जिससे तुम्हें

    १‍५१‍ .

    घृणा न हो उससे

     

    अनुराग क्यों ?

       
     

     मोक्षमार्ग में

    १‍५२ .

    समिति समतल

     

    गुप्ति सीढ़ियाँ।

       
     

     धूप-छाँव सी

    १‍५३ .

    वस्तुत: वस्तुओं की

     

    क्या पकड़ है ?

       
     

     धूम्र से बोध

    १‍५४ .

    अग्नि का हो गुरु से

     

    सो आत्म बोध।

       
     

     कब लौं सोचो

    १‍५५ .

    कब करो ना सोचे

     

    करो क्या पाओ ?

       
     

     कस न ढील

    १‍५६ .

    अनति हो सो वीणा

     

    स्वर लहरी।

       
     

     पुण्य-पथ लौ

    १‍५७ .

    पाप मिटे पुण्य से

     

    पुण्य पथ है।

       
     

     पथ को कभी

    १‍५८ .

    मिटाना नहीं होता

     

    पथ पे चलो।

       
     

     नाविक तीर

    १‍५९ .

    ले जाता हमें तभी

     

    नाव की पूजा।

       
     

     हद कर दी

    १‍६० .

    बेहद छूने उठे

     

    क़द तो देखो।

       
     

     भारी वर्षा हो

    १‍६१‍ .

    दल-दल धुलता

     

    अन्यथा मचे।

       
     

     माँगते हो तो

    १‍६२ .

    कुछ दो उसी में से

     

    कुछ देऊँगा।

       
     

     अनेक यानी

    १‍६३ .

    बहुत नहीं किन्तु

     

    एक नहीं है।

       
     

     मन की कृति

    १‍६४ .

    लिखूँ पढ़ूँ सुनूँ पै

     

    कैसे सुनाऊँ ?

       
     

     कैसे देखते ?

    १‍६५ .

    संत्रस्त संसार को

     

    दया मूर्ति हो।

       
     

     मोह टपरी

    १‍६६ .

    ज्ञान की आँधी में यूँ

     

    उड़ी जा रही।

       
     

     पाँच भूतों के

    १‍६७ .

    पार अपार पूत

     

    अध्यात्म बसा।

       
     

     क़ैदी हूँ देह-

    १‍६८ .

    जेल में जेलर ना…

     

    तो भी भागा ना।

       
     

     तेरा सो एक

    १‍६९ .

    सो सुख अनेक में

     

    दु:ख ही दु:ख।

       
     

     सहजता में

    १‍७० .

    प्रतिकार का भाव

     

    दिखता नहीं।

       
     

     साधना छोड़

    १‍७१‍ .

    काय-रत होना ही

     

    कायरता है।

       
     

     भेद-वती है

    १‍७२ .

    कला स्वानुभूति तो

     

    अद्वैत की माँ…

       
     

     विज्ञान नहीं

    १‍७३ .

    सत्य की कसौटी है

     

    ‘दर्शन’ यहाँ।

       
     

     आम बना लो

    १‍७४ .

    ना कहो काट खाओ

     

    क्रूरता तजो।

       
     

     नौका पार में

    १‍७५ .

    सेतु-हेतु मार्ग में

     

    गुरु-साथ दें।

       
     

     मुनि स्व में तो

    १‍७६ .

    सीधे प्रवेश करें

     

    सर्प बिल में।

       
     

     चिन्तन कभी

    १‍७७ .

    समयानुबन्ध को

     

    क्या स्वीकारता ?

       
     

     बिना रस भी

    १‍७८ .

    पेट भरता छोड़ो

     

    मन के लड्डू।

       
     

     भोक्ता के पीछे

    १‍७९ .

    वासना भोक्ता ढूँढे

     

    उपासना को।

       
     

     दो जीभ न हो

    १‍८० .

    जीवन में सत्य ही

     

    सब कुछ है।

       
     

     सिर में चाँद

    १‍८१‍ .

    अच्छा निकल आया

     

    सूर्य न उगा।

       
     

     जैसे दूध में

    १‍८२ .

    बूरा पूरा पूरता

     

    वैसा घी क्यों ना…?

       
     

     स्वोन्नति से भी

    १‍८३ .

    पर का पराभव

     

    उसे सुहाता… !

       
     

     शिरोधार्य हो

    १‍८४ .

    गुरु-पद-रज सो

     

    नीरज बनूँ।

       
     

     परवश ना

    १‍८५ .

    भीड़ में होकर भी

     

    मौनी बने हो।

       
     

     दुर्भाव टले

    १‍८६ .

    प्रशम-भाव से सो

     

    स्वभाव मिले।

       
     

     खाओ पीयो भी

    १‍८७ .

    थाली में छेद करो

     

    कहाँ जाओगे ?

       
     

     समझ न थी

    १‍८८ .

    अनर्थ किया आज

     

    समझ रोता।

       
     

     गुब्बारा फूटा

    १‍८९ .

    क्यों ? मत पूछो 'पूछो'

     

    फुलाया क्यों था?

       
     

     बदलाव है

    १‍९० .

    पै स्वरुप में न सो

     

    ‘था’ है ‘रहेगा’।

       
     

     अर्ध शोधित-

    १‍९१‍ .

    पारा औषध नहीं

     

    पूरा विष है।

       
     

     तटस्थ व्यक्ति

    १‍९२ .

    नहीं डूबता हो तो

     

    पार भी न हो।

       
     

     दृष्टि पल्टा दो

    १‍९३ .

    तामस समता हो

     

    और कुछ ना…

       
     

     देवों की छाया

    १‍९४ .

    ना सही पै हवा तो

     

    लग सकती।

       
     

     तेरा सत्य है

    १‍९५ .

    भविष्य के गर्भ में

     

    असत्य धो ले।

       
     

     परिचित को

    १‍९६ .

    पीठ दिखा दे फिर !

     

    सब ठीक है।

       
     

     मधुर बनो

    १‍९७ .

    दाँत तोड़ गन्ना भी

     

    लोकप्रिय है।

       
     

     किस ओर तू…!

    १‍९८ .

    दिशा मोड़ दे युग-

     

    लौट रहा है।

       
     

     दृश्य से दृष्टा

    १‍९९ .

    ज्ञेय से ज्ञाता महा

     

    सो अध्यात्म है।

       
     

     बिना ज्ञान के

    २०० .

    आस्था को भीति कभी

     

    छू न सकती।

       
     

     उर सिर से

    २०१‍ .

    महा वैसा ज्ञान से

     

    दर्शन होता।

       
     

     व्याकुल व्यक्ति

    २०२ .

    सम्मुख हो कैसे दूँ ?

     

    उसे मुस्कान…!

       
     

     अधम-पत्ते

    २०३ .

    तोड़े कोंपलें बढ़े

     

    पौधा प्रसन्न !

       
     

     पूर्णा-पूर्ण तो

    २०४ .

    सत्य हो सकता पै

     

    बहुत नहीं।

       
     

     गर्व गला लो

    २०५ .

    गले लगा लो जो हैं

     

    अहिंसा प्रेमी।

       
     

     काश न देता

    २०६ .

    आकाश अवकाश

     

    तू कहाँ होता ?

       
     

     सहयोगिनी

    २०७ .

    परस्पर में आँखें

     

    मंगल झरी।

       
     

     हमारे दोष

    २०८ .

    जिनसे गले धुले

     

    वे शत्रु कैसे ?

       
     

     हमारे दोष

    २०९ .

    जिनसे फले फूले

     

    वे बन्धु कैसे ?

       
     

     भरोसा ही क्या ?

    २१‍० .

    काले बाल वालों का

     

    बिना संयम।

       
     

     वैराग्य न हो

    २१‍१‍ .

    बाढ़ तूफ़ान सम

     

    हो ऊर्ध्व-गामी।

       
     

     छाया का भार

    २१‍२ .

    नहीं सही परन्तु

     

    प्रभाव तो है।

       
     

     फूलों की रक्षा

    २१‍३ .

    काँटों से हो शील की

     

    सादगी से हो।

       
     

     बहुत मीठे

    २१‍४ .

    बोल रहे हो अब !

     

    मात्रा सुधारो।

       
     

     तुमसे मेरे

    २१‍५ .

    कर्म कटे मुझसे

     

    तुम्हें क्या मिला ?

       
     

     राजा प्रजा का

    २१‍६ .

    वैसा पोषण करे

     

    मूल वृक्ष का।

       
     

     कोई देखे तो

    २१‍७ .

    लज्जा आती मर्यादा

     

    टूटने से ना…!

       
     

     आती छाती पे

    २१‍८ .

    जाती कमर पे सो

     

    दौलत होती।

       
     

     सिद्ध घृत से

    २१‍९ .

    महके बिना गन्ध

     

    दुग्ध से हम।

       
     

     कपूर सम

    २२० .

    बिना राख बिखरा

     

    सिद्धों का तन।

       
     

     खुली सीप में

    २२१ .

    स्वाति की बूँद मुक्ता

     

    बने और न…!

       
     

     दिन में शशि

    २२२ .

    विदुर सा लगता

     

    सुधा-विहीन।

       
     

     कब पता न

    २२३ .

    मृत्यु एक सत्य है

     

    फिर डर क्यों ?

       
     

     काल घूमता

    २२४ .

    काल पै आरोप सो

     

    क्रिया शून्य है।

       
     

     बिना नयन

    २२५ .

    उप नयन किस

     

    काम में आता ?

       
     

     अनजान था

    २२६ .

    तभी मजबूरी में

     

    मज़दूर था।

       
     

     बिन देवियाँ

    २२७ .

    देव रहें देवियाँ

     

    बिन देव ना…!

       
     

     काला या धोला

    २२८ .

     'दाग' दाग है फिर

     

    काला तिल भी…

       
     

     हीरा 'हीरा' है

    २२९ .

     'काँच' काँच है किन्तु

     

    ज्ञानी के लिए…

       
     

     पापों से बचे

    २३० .

    आपस में भिड़े क्या ?

     

    धर्म यही है ।

       
     

     डाल पे पका

    २३१ .

    गिरा आम मीठा हो

     

    गिराया खट्टा…

       
     

     भार हीन हो

    २३२ .

    चारु-भाल की माँग

     

    क्या मान करो ?

       
     

     पक्षाघात तो

    २३३ .

    आधे में हो पूरे में

     

    सो पक्षपात…

       
     

     प्रति-निधि हूँ

    २३४ .

    सन्निधि पा के तेरी

     

    निधि माँगू क्या ?

       
     

     आस्था व बोध

    २३५ .

    संयम की कृपा से

     

    मंज़िल पाते।

       
     

     स्मृति मिटाती

    २३६ .

    अब को अब की हो

     

    स्वाद शून्य है।

       
     

     शब्द की यात्रा

    २३७ .

    प्रत्यक्ष से अन्यत्र

     

    हमें ले जाती।

       
     

     चिन्तन में तो

    २३८ .

    परालम्बन होता

     

    योग में नहीं।

       
     

     सत्य 'सत्य' है

    २३९ .

     'असत्य' असत्य तो

     

    किसे क्यों ढाँकू…?

       
     

     किसको तजूँ ?

    २४० .

    किसे भजूँ  ? सबका

     

    साक्षी हो जाऊँ।

       
     

     नपुंसक हो

    २४१ .

    मन ने पुरुष को

     

    पछाड़ दिया…

       
     

     साधना क्या है ?

    २४२ .

    पीड़ा तो पी के देखो

     

    हल्ला  न  करो ।

       
     

     खाल मिली थी

    २४३ .

    यहीं मिट्टी में मिली

     

    ख़ाली जाता हूँ।

       
     

     जिस भाषा में

    २४४ .

    पूछा उसी में तुम

     

    उत्तर दे दो।

       
     

     कभी न हँसो

    २४५ .

    किसी पे स्वार्थवश

     

    कभी न रोओ।

       
     

     दर्पण कभी

    २४६ .

    न रोया न हँसा हो

     

    ऐसा संन्यास।

       
     

     ब्रह्म रन्ध्र से

    २४७ .

    बाद पहले श्वास

     

    नाक से तो लो।

       
     

     सामायिक में

    २४८ .

    तन कब हिलता

     

    और क्यों देखो…?

       
     

     कम से कम

    २४९ .

    स्वाध्याय (श्रवण) का वर्ग हो

     

     प्रयोग-काल।

       
     

     एक हूँ ठीक

    २५० .

    गोता-खोर तुम्बी क्या

     

    कभी चाहेगा ?

       
     

     बिना विवाह

    २५१ .

    प्रवाहित हुआ क्या ?

     

    धर्म-प्रवाह।

       
     

     दूध पे घी है

    २५२ .

    घी से दूध न दबा

     

    घी लघु बना।

       
     

     ऊपर जाता

    २५३ .

    किसी को न दबाता

     

    घी गुरु बना।

       
     

     नाड़ हिलती

    २५४ .

    लार गिरती किन्तु

     

    तृष्णा युवती।

       
     

     तीर न छोड़ो

    २५५ .

    मत चूको अर्जुन !

     

    तीर पाओगे।

       
     

     बाँध भले ही

    २५६ .

    बाँधो नदी बहेगी

     

    अधो या ऊर्ध्व।

       
     

     अनागत का

    २५७ .

    अर्थ भविष्य न पै

     

    आगत नहीं।

       
     

     तुलनीय भी

    २५८ .

    सन्तुलित तुला में

     

    तुलता मिला।

       
     

     अर्पित यानी

    २५९ .

    मुख्य समर्पित सो

     

    अहं का त्याग।

       
     

     गन्ध जिह्वा का

    २६० .

    खाद्य न फिर क्यों तू ?

     

    सौगंध खाता ।

       
     

     स्व-स्व कार्यों में

    २६१ .

    सब लग गये पै

     

    मन न लगा ।

       
     

     तपस्वी बना

    २६२ .

    पर्वत सूखे पेड़

     

    हड्डी से लगे।

       
     

     अन्धकार में

    २६३ .

    अन्धा न आँख वाला

     

    डर सकता।

       
     

    जल कण भी

    २६४ .

    अर्क तूल को देखा !

     

    धूल खिलाता।

       
     

     जल में तैरे

    २६५ .

    स्थूल-काष्ठ भी लघु

     

    कंकर डूबे।

       
     

     छाया सी लक्ष्मी

    २६६ .

    अनुचरा हो यदि

     

    उसे न देखो।

       
     

     गुरु औ शिष्य

    २६७ .

    आगे-पीछे दोनों में

     

    अन्तर कहाँ ?

       
     

     सत्य न पिटे

    २६८ .

    कोई न मिटे ऐसा

     

    न्याय कहाँ है ?

       
     

     ऊहापोह के

    २६९ .

    चक्रव्यूह में धर्म

     

    दुरूह हुआ।

       
     

     नेता की दृष्टि

    २७० .

    निजी दोषों पे हो या

     

    पर गुणों पे।

       
     

     गिनती नहीं

    २७१ .

    आम में मोर आयी

     

    फल कितने ?

       
     

     दु:खी जग को

    २७२ .

    तज कैसे तो जाऊँ ?

     

    मोक्ष सोचता।

       
     

     दीप काजल

    २७३ .

    जल काई उगले

     

    प्रसंग वश।

       
     

     बोलो ! माटी के

    २७४ .

    दीप-तले अंधेरा

     

    या रतनों के ?

       
     

     बिना राग भी

    २७५ .

    जी सकते हो जैसे

     

    निर्धूम अग्नि।

       
     

     दायित्व भार

    २७६ .

    कन्धों पे आते शक्ति

     

    सो न सकती।

       
     

     सुलझे भी हो

    २७७ .

    और औरों को क्यों तो ?

     

    उलझा देते ।

       
     

     कब बोलते ?

    २७८ .

    क्यों बोलते ? क्या बिना

     

    बोले न रहो ?

       
     

     तपो वर्धिनी

    २७९ .

    मही में ही मही है

     

    स्वर्ग में नहीं।

       
     

     और तो और

    २८० .

    गीले दुपट्टे को भी

     

    न फटकारो।

       
     

     ख़ूब बिगड़ा

    २८१ .

    तेरा उपयोग है

     

    योगा कर ले !

       
     

     ज्ञान ज्ञेय से

    २८२ .

    बड़ा आकाश आया

     

    छोटी आँखों में।

       
     

     पचपन में

    २८३ .

    बचपन क्यों ? पढ़ो

     

    अपनापन।

       
     

     भोगों की याद

    २८४ .

    सड़ी-गली धूप सी

     

    जान खा जाती ।

       
     

     सहगामी हो

    २८५ .

    सहभागी बने सो

     

    नियम नहीं।

       
     

     पद चिह्नों पै

    २८६ .

    प्रश्न चिह्न लगा सो

     

    उत्तर क्या दूँ ( किधर जाना ?)

       
     

     निश्चिन्तता में

    २८७ .

    भोगी सो जाता वहीं

     

    योगी खो जाता।

       
     

     शत्रु मित्र में

    २८८ .

    समता रखें न कि

     

    भक्ष्याभक्ष्य में।

       
     

     आस्था झेलती

    २८९ .

    जब आपत्ति आती

     

     ज्ञान चिल्लाता ।

       
     

     आत्मा ग़लती

    २९० .

    रागाग्नि से लोनी सी

     

    कटती नहीं।

       
     

     नदी कभी भी

    २९१ .

    लौटती नहीं फिर !

     

    तू क्यों लौटता ?

       
     

     समर्पण पे

    २९२ .

    कर्त्तव्य की कमी से

     

    सन्देह न हो।

       
     

     कुण्डली मार

    २९३ .

    कंकर पत्थर पे

     

    क्या मान बैठे ?

       
     

     खुद बँधता

    २९४ .

    जो औरों को बाँधता

     

    निस्संग हो जा।

       
     

     सदुपयोग-

    २९५ .

    ज्ञान का दुर्लभ है

     

    मद-सुलभ।

       
     

     ज्ञानी हो क्यों कि

    २९६ .

    अज्ञान की पीड़ा में

     

    प्रसन्न-जीते।

       
     

     ज्ञान की प्यास

    २९७ .

    सो कहीं अज्ञान से

     

    घृणा तो नहीं।

       
     

     प्रभु-पद में

    २९८ .

    वाणी काया के साथ

     

    मन ही भक्ति।

       
     

     मूर्च्छा को कहा

    २९९ .

    परिग्रह दाता भी

     

    मूर्च्छित न हो।

       
     

     जीवनोद्देश

    ३०० .

    जिनादेश पालन

     

    अनुपदेश।

       
     

     द्वेष से राग

    ३०१ .

    विषैला होता जैसा

     

    शूल से फूल।

       
     

     विषय छूटे

    ३०२ .

    ग्लानि मिटे सेवा से

     

    वात्सल्य बढ़े।

       
     

     अग्नि पिटती

    ३०३ .

    लोह की संगति से

     

    अब तो चेतो।

       
     

     सर्प ने छोड़ी

    ३०४ .

    काँचली वस्त्र छोड़े !

     

    विष तो छोड़ो…!

       
     

     असमर्थन

    ३०५ .

    विरोध सा लगता

     

    विरोध नहीं।

       
     

     हम वस्तुत:

    ३०६ .

    दो हैं तो एक कैसे

     

    हो सकते हैं ?

       
     

     मैं के स्थान में

    ३०७ .

    हम का प्रयोग क्यों

     

    किया जाता है ?

       
     

     मैं हट जाऊँ

    ३०८ .

    किन्तु हवा मत दो

     

    और न जले…!

       
     

     बड़ी बूँदों की

    ३०९ .

    वर्षा सी बड़ी राशि

     

    कम पचती।

       
     

     जिज्ञासा यानी

    ३१० .

    प्राप्त में असन्तुष्टि

     

    धैर्य की हार…!

       
     

     बिना अति के

    ३११ .

    प्रशस्त नति करो

     

    सो विनती है।

       
     

     सुनो तो सही

    ३१२ .

    पहले सोचो नहीं

     

    पछताओगे।

       
     

     केन्द्र को छूती

    ३१३ .

    नपी सीधी रेखाएँ

     

    वृत्त बनाती।

       
     

     शक्ति की व्यक्ति

    ३१४ .

    और व्यक्ति की मुक्ति

     

    होती रहती।

       
     

     जो है ‘सो’ थामें

    ३१५ .

    बदलता होगा ‘सो’

     

    है में ढलता।

       
     

     चिन्तन-मुद्रा

    ३१६ .

    प्रभु की नहीं क्यों कि

     

    वह दोष है।

       
     

     पथ में क्यों तो

    ३१७ .

    रुको नदी को देखो

     

    चलते चलो।

       
     

     ज्ञानी ज्ञान को

    ३१८ .

    कब जानता जब

     

    आपे में होता।

       
     

     बँटा समाज

    ३१९ .

    पंथ जाति-वाद में

     

    धर्म-बाद में ।

       
     

     घर की बात

    ३२० .

    घर तक ही रहे

     

    बे-घर न हो।

       
     

     अकेला न हूँ

    ३२१ .

    गुरुदेव साथ हैं

     

    हैं आत्मसात् वे।

       
     

     निर्भय बनो

    ३२२ .

    पै निर्भीक होने का

     

    गर्व न पालो।

       
     

     अति मात्रा में

    ३२३ .

    पथ्य भी कुपथ्य हो

     

    मात्रा माँ सी हो।

       
     

     संकट से भी

    ३२४ .

    धर्म-संकट और

     

    विकट होता।

       
     

     अँधेरे में हो

    ३२५ .

    किंकर्त्तव्य मूढ़ सो

     

    कर्त्तव्य जीवी।

       
     

     धन आता दो

    ३२६ .

    कूप साफ़ कर दो

     

    नया पानी लो।

       
     

     हम से कोई

    ३२७ .

    दु:खी नहीं हो बस !

     

    यही सेवा है।

       
     

     चालक नहीं

    ३२८ .

    गाड़ी दिखती मैं न

     

     (काया) साड़ी दिखती।

       
     

     एक दिशा में

    ३२९ .

    सूर्य उगे कि दशों

     

    दिशाएँ ख़ुश।

       
     

     जीत सको तो

    ३३० .

    किसी का दिल जीतो

     

    सो वैर न हो।

       
     

     सिंह से वन

    ३३१ .

    सिंह वन से बचा

     

    पूरक बनो।

       
     

     तैरना हो तो

    ३३२ .

    तैरो हवा में छोड़ो !

     

    पहले मोह।

       
     

     गुरु कृपा से

    ३३३ .

    बाँसुरी बना मैं तो

     

    ठेठ बाँस था।

       
     

     पर्याय क्या है ?

    ३३४ .

    तरंग जल की सो !

     

    नयी-नयी है।

       
     

     पुण्य का त्याग

    ३३५ .

    अभी न बुझे आग

     

    पानी का त्याग।

       
     

     प्रेरणा तो दूँ

    ३३६ .

    निर्दोष होने रुचि

     

    आप की होगी।

       
     

     वे चल-बसे

    ३३७ .

    यानी यहाँ से वहाँ

     

    जा कर बसे।

       
     

     कहो न सहो

    ३३८ .

    सही परीक्षा यही

     

    आपे में रहो।

       
     

     पाँचों की रक्षा

    ३३९ .

    मुट्ठि में मुट्ठि बँधी

     

    लाखों की मानी।

       
     

      केन्द्र की ओर

    ३४० .

    तरंगें लौटती सी

     

    ज्ञान की यात्रा।

       
     

     बँधो न बाँधो

    ३४१ .

    काल से व काल को

     

    कालजयी हो।

       
     

     गुरु नम्र हो

    ३४२ .

    झंझा में बड़ गिरे

     

    बेंत ज्यों की त्यों।

       
     

     तैरो नहीं तो

    ३४३ .

    डूबो कैसे ? ऐसे में

     

    निधि-पाओगे ।

       
     

     मध्य रात्रि में

    ३४४ .

    विभीषण आ मिला

     

     'राम' राम थे।

       
     

     व्यापक कौन ?

    ३४५ .

    गुरु या गुरु वाणी

     

    किस से पूछें ?

       
     

     योग का क्षेत्र

    ३४६ .

    अंतर्राष्ट्रीय नहीं

     

    अंतर्जगत् है।

       
     

     मत दिलाओ

    ३४७ .

    विश्वास लौट आता

     

    व्यवहार से।(आचरण से)

       
     

     सार्थक बोलो

    ३४८ .

    व्यर्थ नहीं साधना

     

    सो छोटी नहीं।

       
     

     मैं खड़ा नहीं

    ३४९ .

    देह को खड़ा कर

     

    देख रहा हूँ।

       
     

     आँखें ना मूँदों

    ३५० .

    ना ही आँख दिखाओ

     

    सही क्या देखो?

       
     

     हाथ ना मलो

    ३५१ .

    ना ही हाथ दिखाओ

     

    हाथ मिलाओ।

       
     

     जाने केवली

    ३५२ .

    इतना जानता हूँ

     

    जानन हारा।

       
     

     ठण्डे बस्ते में

    ३५३ .

    मन को रखना ही

     

    मोक्षमार्ग है।

       
     

     आँखें देखतीं

    ३५४ .

    हैं मन सोचता है

     

    इसमें मैं हूँ।

       
     

     उड़ान भूली

    ३५५ .

    चिड़िया सोने की तू

     

    उठ उड़ जा।

       
     

     झूठ भी यदि

    ३५६ .

    सफ़ेद हो तो सत्य

     

    कटु क्यों न हो ?

       
     

     परिधि में ना

    ३५७ .

    परिधि में हूँ हाँ हूँ

     

    परिधि सृष्टा।

       
     

     बचो-बचाओ

    ३५८ .

    पाप से पापी से ना

     

    पुण्य कमाओ।

       
     

     हँसो-हँसाओ

    ३५९ .

    हँसी किसी की नहीं

     

    इतिहास हो।

       
     

     अति संधान

    ३६० .

    अनुसंधान नहीं

     

    संधान साधो।

       
     

     है का होना ही

    ३६१ .

    द्रव्य का स्वभाव है

     

    सो सनातन।

       
     

     सुना था सुनो,

    ३६२ .

    ”अर्थ की ओर न जा”

     

    डूबो आपे में।

       
     

     अपनी नहीं

    ३६३ .

    आहुति अहं की दो

     

    झाँको आपे में।

       
     

     पीछे भी देखो

    ३६४ .

    पिछलग्गू न बनो

     

    पीछे रहोगे।

       
     

     द्वेष पचाओ

    ३६५ .

    इतिहास रचाओ

     

    नेता बने हो।

       
     

     काम चलाऊ

    ३६६ .

    नहीं काम का बनूँ

     

    काम हंता भी।

       
     

     आँखों से आँखें

    ३६७ .

    न मिले तो भीतरी

     

    आँखें खुलेगी।

       
     

     ऊधमी तो है

    ३६८ .

    उद्यमी आदमी सो

     

    मिलते कहाँ ?

       
     

     तुम तो करो

    ३६९ .

    हड़ताल मैं सुनूँ

     

    हर ताल को।

       
     

     संग्रह कहाँ

    ३७० .

    वस्तु विनिमय में

     

    मूर्च्छा मिटती।

       
     

     सगा हो दगा

    ३७१ .

    अर्थ विनिमय में

     

    मूर्च्छा बढ़ती।

       
     

     धुन के पक्के

    ३७२ .

    सिद्धांत के पक्के हो

     

    न हो उचक्के ।(बनो मुनक्के)

       
     

     नये सिरे से

    ३७३ .

    सिर से उर से हो

     

    वर्षा दया की।

       
     

     ज़रा ना चाहूँ

    ३७४ .

    अजरामर बनूँ

     

    नज़र चाहूँ।

       
     

      बिना खिलौना

    ३७५  ‍.

    कैसे किससे खेलूँ  ?

     

    बनूँ खिलौना।

       
     

     चिराग़ नहीं

    ३७६ .

    आग जलाऊँ ताकि

     

    कर्म-दग्ध हों।

       
     

     खेती-बाड़ी है

    ३७७ .

    भारत की मर्यादा

     

    शिक्षा साड़ी है।

       
     

     शरण लेना

    ३७८ .

    शरण देना दोनों

     

    पथ में होते।

       
     

     दादा हो रहो

    ३७९ .

    दादागिरी न करो

     

    दायित्व पालो।

       
     

     हाथ तो डालो

    ३८० .

    वामी में विष को भी

     

    सुधा दो हो तो।

       
     

     श्वेत पत्र पे

    ३८१ .

    श्वेत स्याही से कुछ

     

    लिखा सो पढ़ो।

       
     

     राज़ी ना होना

    ३८२ .

    नाराज़ सा लगता

     

    नाराज़ नहीं।

       
     

     भार तो उठा

    ३८३ .

    चल न सकता तो

     

    पैर उठेंगे।

       
     

     मन का काम

    ३८४ .

    मत करो मन से

     

    काम लो मोक्ष।

       
     

     छात्र तो न हो

    ३८५ .

    शोधार्थी शिक्षक व

     

    प्रयोगधर्मी।

       
     

     दिन में शशि

    ३८६ .

    शर्मिंदा हैं तारायें

     

    घूँघट में है।

       
     

     दीक्षा ली जाती

    ३८७ .

    पद दिया जाता है

     

    सो यथायोग्य ।

       
     

     उन्हें न भूलो

    ३८८ .

    जिनसे बचना है

     

    वक़्त-वक्त पे।

       
     

     सूत्र कभी भी

    ३८९ .

    वासा नहीं होता सो

     

    भाव बदलो।(भाव सु-धारो)

       
     

     ध्यान काल में

    ३९० .

    ज्ञान का श्रम कहाँ

     

    पूरा विश्राम।

       
     

     खान-पान हो

    ३९१ .

    संस्कारित शिक्षा से

     

    खान-दान हो।

       
     

     ऐसा संकेत

    ३९२ .

    शब्दों से भी अधिक

     

    हो तलस्पर्शी।

       
     

     हम अधिक

    ३९३ .

    पढ़े-लिखे हैं कम

     

    समझदार ।

       
     

     मेरी दो आँखें

    ३९४ .

    मेरी ओर हजार

     

    सतर्क होऊँ।

       
     

     मुक़द्दर है

    ३९५ .

    उतनी ही चद्दर

     

    पैर फैलाओ।

       
     

     घुटने टेक

    ३९६ .

    और घुटने दो न

     

    घोंटते जाओ।

       
     

     अशुद्धि मिटे

    ३९७ .

    बुद्धि की वृद्धि न हो

     

    विशुद्धि बढ़े।

       
     

     गोबर डालो

    ३९८ .

    मिट्टी में सोना पालो

     

    यूरिया राख।

       
     

     हमसे उन्हें

    ३९९ .

    पाप बंध नहीं हो

     

    यही सेवा है।

       
     

     प्राणायाम से

    ४०० .

    श्वास का मात्र न हो

     

    प्राण दस है।

       
     

     देख रहा हूँ

    ४०१ .

    देख न पा रही हैं

     

    वे आँखें मुझे।

       
     

     दुस्संगति से

    ४०२ .

    बचो सत् संगति में

     

    रहो न रहो।

       
     

     दुर्ध्यान से तो

    ४०३ .

    दूर रहो सद्ध्यान

     

    करो न करो।

       
     

     कर्रा हो भले

    ४०४ .

    टर्रा न हो तो पक्का

     

    पक सकोगे।

       
     

     अंधाधुँध यूँ

    ४०५ .

    महाबंध न करो

     

    अंधों में अंधों।

       
     

     कमी निकालो

    ४०६ .

    हम भी हम होंगे

     

    कहाँ न कमी।

       
     

     लज्जा आती है

    ४०७ .

    पलकों को बना ले

     

    घूँघट में जा।

       
     

     कड़वी दवा

    ४०८ .

    उसे रुचति जिसे

     

    आरोग्य पाना।

       
     

     स्व आश्रित हूँ

    ४०९ .

    शासन प्रशासन

     

    स्वशासित हैं।

       
     

     सागर शांत

    ४१० .

    मछली अशांत क्यों ?

     

    स्वाश्रित हो जा।

       
     

     कोठिया नहीं

    ४११ .

    छप्पर फाड़ देती

     

    पक्की आस्था हो।

       
     

     धनी से नहीं

    ४१२ .

     'निर्धनी' निर्धनी से

     

    मिले सुखी हो।

       
     

     दण्डशास्त्र क्यों ?

    ४१३ .

    जैसा प्रभू ने देखा

     

    जो होना हुआ।

       
     

     ईर्ष्या क्यों करो ?

    ४१४ .

    ईर्ष्या तो बड़ों से हो

     

    छोटे क्यों बनो ?

       
     

     टूट चुका है

    ४१५ .

    बिखरा भर नहीं

     

    कभी जुड़ा था।

       
     

     तपस्या नहीं

    ४१६ .

    पैरों की पूजा देख

     

    आँखें रो रहीं।

       
     

     भिन्न क्या जुड़ा ?

    ४१७ .

    अभिन्न कभी टूटा

     

    कभी सोचा भी ?

       
     

     कौन किससे ?

    ४१८ .

    कम है मत कहो

     

    मैं क्या कम हूँ ?

       
     

     त्याग का त्याग

    ४१९ .

    अभी न बुझे आग

     

    पानी का त्याग।

       
     

     प्रेरणा तो दूँ

    ४२० .

    निर्दोष होने बचो

     

    दोष से आप।

       
     

     यात्रा वृत्तांत

    ४२१ .

    ‘‍’लिख रहा हूँ वो भी”

     

    बिन लेखनी।

       
     

     मन की बात

    ४२२ .

    ”सुनना नहीं होता”

     

    मोक्षमार्ग में।

       
     

     ठंडे बस्ते में

    ४२३ .

    ”मन को रखो फिर”

     

    आत्मा में डूबो।(आत्मा से बोलो)

       
     

     खाली हाथ ले

    ४२४ .

    ”आया था जाना भी है”

     

    खाली हाथ ले।

       
     

     आँखें देखतीं

    ४२५ .

    ”मन याद करता”

     

    दोनों में मैं हूँ।

       
     

     दिख रहा जो

    ४२६ .

    ‘दृष्टा नहीं दृष्टा सो”

     

    दिखता नहीं।

       
     

     आग से बचा

    ४२७ .

    'धुआँ से जला (व्रती) सा तू”

     

    मद से घिरा।

       
     

     चूल को देखूँ

    ४२८ .

    ‘मूल को वंदूँ भूल”

     

    आमूल चूल।

       
     

     अंधी दौड़ में

    ४२९ .

    ”आँख वाले हो क्यों तो”

     

    भाग लो सोचो।

       
     

     महाकाव्य भी

    ४३० .

    ”स्वर्णाभरण सम”

     

    निर्दोष न हो।

       
     

     पैरों में काँटे

    ४३१ .

    ”गड़े आँखों में फूल”

     

    आँखें क्यों चली ?

       
     

     चक्री भी लौटा

    ४३२ .

    ”समवसरण से ”

     

    कारण मोह।

       
     

     दर्शन से ना

    ४३३ .

    ”ज्ञान से आज आस्था”

     

    भय भीत है।

       
     

     एकता में ही

    ४३४ .

    ”अनेकांत फले सो”

     

    एकांत टले।

       
     

     पीठ से मैत्री

    ४३५ .

    ”पेट ने की तब से”

     

    जीभ दुखी है।

       
     

     सूर्य उगा सो

    ४३६ .

    ”सब को दिखता क्यों” ?

     

    आँखें तो खोलो।

       
     

     अंधे बहरे

    ४३७ .

    ”मूक क्या बिना शब्द”

     

    शिक्षा ना पाते।

       
     

     पद यात्री हो

    ४३८ .

    ”पद की इच्छा बिन”

     

    पथ पे चलूँ।

       
     

     सही चिंतक

    ४३९ .

    ”अशोक जड़ सम”

     

    सखोल जाता।

       
     

     बिन्दु की रक्षा

    ४४० .

    सिन्धु में नहीं बिन्दु

     

    बिन्दु से मिले।

       
     

     भोग के पीछे

    ४४१ .

    भोग चल रहा है

     

    योगी है मौन।

       
     

     श्वेत पे काला

    ४४२ .

    या काले पे श्वेत हो

     

    मंगल कौन?

       
     

     थोपी योजना

    ४४३ .

    पूर्ण होने से पूर्व

     

    खण्डहर सी।

       
     

     हिन्दुस्थान में

    ४४४ .

    सफल फिसल के

     

    फसल होते।

       
     

     शब्दों में अर्थ

    ४४५ .

    यदि भरा किससे

     

    कब क्यों बोलो।

       
     

     व्यंजन छोडूँ

    ४४६ .

    गूंग है पढूँ है सो

     

    स्वर में सुनूँ।

       
     

     कटु प्रयोग

    ४४७ .

    उसे रुचता जिसे

     

    आरोग्य पाना।

       
     

     एक से नहीं

    ४४८ .

    एकता से काम लो

     

    काम कम हो।

       
     

     बड़ों छोटो पे

    ४४९ .

    वात्सल्य विनय से

     

    एकता पाये।

       
     

     शब्दों में अर्थ

    ४५० .

    है या आत्मा में इसे

     

    कौन जानता।

       
     

     असत्य बचे

    ४५१ .

    बाधा न सत्य कभी

     

    पिटे न बस।

       
     

     किसे मैं कहूँ

    ४५२ .

    मुझे मैं नहीं मिला

     

    तुम्हें क्या (मैं) मिला ?

       
     

     मण्डूक बनो

    ४५३ .

    कूप मण्डूक नहीं

     

    नहीं डूबोगे।

       
     

     किस मूढ़ में

    ४५४ .

    मोड़ पे खड़ा सही

     

    मोड़ा मुड़ जा।

       
     

     बहुत सोचो

    ४५५ .

    कब करो ना सोचे

     

    करो लुटोगेl

       
     

     मरघट पे

    ४५६ .

    जमघट है शव

     

    कहता लौटूँ।

       
     

     ज्ञानी बने हो

    ४५७ .

    जब बोलो अपना

     

    स्वाद छूटता।

       
     

     कोहरा को ना

    ४५८ .

    को रहा कोहरे में

     

    ढली मोह है।

       
     

     जल में नाव

    ४५९ .

    कोई चलाता किंतु

     

    रेत में मित्रों।

       
     

     रोते को देख

    ४६० .

    रोते तो कभी और

     

    रोना होता है।

       
     

     तुम्बी तैरती

    ४६१ .

    तारती औरों को भी

     

    गीली क्या सूखी?

       
     

     भली नासिका

    ४६२ .

    तू क्यों कर फूलती

     

    मान हानि में।

       
     

     कैदी हूँ देह

    ४६३ .

    जेल में जेलर ना

     

    तो भी वहीं हूँ।

       
     

     हाथ कंगन

    ४६४ .

    बिना बोले रहे दो

     

    बर्तन क्यों ना?

       
     

     बंदर कूँदे

    ४६५ .

    अचूक और उसे

     

    अस्थिर कहो।

       
     

     सहजता औ

    ४६६ .

    प्रतिकार का भाव

     

    बेमेल रहे।

       
     

     पर की पीड़ा

    ४६७ .

    अपनी करुणा की

     

    परीक्षा लेती।

       
     

     परिचित भी

    ४६८ .

    अपरिचित लगे

     

    स्वस्थ ज्ञान को।

       
     

     पक्की नींव है

    ४६९ .

    घर कच्चा है छॉंव

     

    घनी है बस।

       
     

     कर्त्तव्य मान

    ४७० .

    ऋण रणांगन को

     

    पीठ नहीं दो।

       
     

     पगडंडी में

    ४७१ .

    डंडे पड़ते तो क्या ?

     

    राजमार्ग में।

       
     

     प्रतिशोध में

    ४७२ .

    बोध अंधा हो जाता

     

    शोध तो दूर।

       
     

     मैं क्या जानता ?

    ४७३ .

    क्या क्या न जानता सो

     

    गुरु जी जाने।

       
     

     धनिक बनो

    ४७४ .

    अधिक वैधानिक

     

    पहले बनो।

       
     

     दर्पण कभी

    ४७५ .

    न रोया श्रद्धा कम

     

    क्यों रोओ हँसो ?

       
     

     है का होना ही

    ४७६ .

    द्रव्य का प्रवास है

     

    सो सनातन।

       
     

     सन्निधिता क्यों ?

    ४७७ .

    प्रतिनिधि हूँ फिर

     

    क्या निधि माँगू।

       
     

     सब अपने

    ४७८ .

    कार्यों में लग गये

     

    मन न लगा।

       
     

     बाहर आते

    ४७९ .

    टेढ़ी चाल सर्प की

     

    बिल में सीधी |

       
     

     मनोनुकूल

    ४८० .

    आज्ञा दे दूँ कैसे दूँ ?

     

    बँधा विधि से |

       
     

     उत्साह बढ़े

    ४८१ .

    उत्सुकता भगे तो

     

    अगाध धैर्य |(गाम्भीर्य बढ़े)

       
     

     दोनों ना चाहो

    ४८२ .

    एक दूसरे को या

     

    दोनों में एक |(कोई भी एक)

       
     

     पुरुष भोक्ता

    ४८३ .

    नारी भोक्त्र ना मुक्ति

     

    दोनों से परे |

       
     

     कचरा डालो

    ४८४ .

    अधकचरा नहीं

     

    खाद तो डालो |

       
     

     कचरा बनूँ

    ४८५ .

    अधकचरा नहीं

     

    खाद तो बनूँ |

       
     

     बाहर टेढ़ा

    ४८६ .

    बिल में सीधा होता

     

    भीतर जाओ |

       
     

     वैधानिक तो

    ४८७ .

    तनिक बनो फिर

     

    अधिक धनी |

       
     

     ऊधम नहीं

    ४८८ .

    उद्यम करो बनो

     

    दमी आदमी |

       
     

     आज सहारा

    ४८९ .

    हाय को है हायकू

     

    कवि के लिये |

       
     

     ध्वनि न देओ

    ४९० .

    गति / मति धीमी हो निजी

     

     और औरों की|

       
     

     तिल की ओट

    ४९१ .

    पहाड़ छुपा ज्ञान

     

    ज्ञेय से बड़ा |

       
     

     एकजुट हो

    ४९२ .

    एक से नहीं जुड़ो

     

    बेजोड़ जोड़ो |

       
     

     डूबना ध्यान

    ४९३ .

    तैरना सामायिक

     

    डूबो तो जानो |

       
     

     सामायिक में

    ४९४ .

    करना कुछ नहीं

     

    शांत बैठना |

       
     

     दायित्व भार

    ४९५ .

    कंधों पर आते ही

     

    शक्ति आ जाती |

       
     

     दवा तो दवा

    ४९६ .

    कटु या मीठी जब

     

    आरोग्य पान |

       
     

     ज्ञान सदृश

    ४९७ .

    आस्था भी भीती से सो

     

    कँपती नहीं |

       
     

     कब और क्यों ?

    ४९८ .

    जहाँ से निकला सो

     

    स्मृति में लाओ |

       
     

     ममता से भी

    ४९९ .

    समता की क्षमता

     

    अमिता मानी |

       
     

     लज्जा न बेचो

    ५०० .

    शील का पालन सो

     

    ढीला ढीला न |

       
     

     तरण नहीं

    ५०१ .

    वितरण बिना हो

     

    चिरमरण | (भूयोमरण)

       
     

     योग में देखा

    ५०२ .

    कोलाहल मन का

     

    नींद ले रहा |

       
     

     मैं तो आत्मा हूँ

    ५०३ .

    औरों से आत्मीयता

     

    मेरी श्वास है।

       
     

     दो-दो पंख हो

    ५०४ .

    राष्ट्रीय पक्षी बनो

     

    पक्षपात धिक् |

       
     

     जिनसे मेरे

    ५०५ .

    कर्म धुले टले वो

     

    शत्रु ही कैसे ?

       
     

     जिनसे मेरे

    ५०६ .

    कर्म बंधे फले वो

     

    मित्र ही कैसे ?

       
     

     जो जवान था

    ५०७ .

    बूढ़ा होकर वह

     

    पूरा हो गया |

       
     

     दर्प देखने

    ५०८ .

    दर्पण देखना क्या ?

     

    बुद्धिमानी है ।

       
     

     उपयोग का

    ५०९ .

    सही उपयोग हो

     

    सही बात है |

       
     

     विष का पान

    ५१० .

    समता सहित भी

     

    अमृत बने |

       
     

     उनके तीर

    ५११ .

    न तो डूबो अर्जुन

     

    पाओ न तीर |

       
     

     मुझे सँभाला

    ५१२ .

    उन्हें दवा दुआ दूँ

     

    ऋण चुकाऊँ |

       
     

     मोह से घिरे

    ५१३ .

    आचरण से गिरे

     

    पर से जले |

       
     

     निमित्त मिले

    ५१४ .

    पित्त उछले भले

     

    चित्त शांत हो (मस्त हो / स्वस्थ हो)।

       
     

     आप या हम

    ५१५ .

    कर्त्तव्य निष्ठ बने

     

    हम ही बने।

       
     

     मुझे जिताया

    ५१६ .

    वे जीते रहें और

     

    मैं सेवा करुँ ।

       
     

     व्यंग का अर्थ

    ५१७ .

    सकलांग नहीं पै

     

    विकलांग हो।

       
     

     क्यों कि आप में

    ५१८ .

    सब नहीं आते तो

     

    हम में सब।

       
     

     जीना तो चाहूँ

    ५१९ .

    जीना चढ़ने हेतू

     

    यूँ ही जीना क्या ?

       
     

     खुली तो रखो

    ५२० .

    आँखें परन्तु बचो

     

    लेन देन से।

       
     

     ध्यान में यत्न

    ५२१ .

    योग सहज होता

     

    मैं उपयोगी।

       
     

     बिना प्रमाद

    ५२२ .

    रसन क्रिया सम

     

    पथ पे चलूँ।

       
     

    रोटी न मॉंगो

    ५२३

    रोटी बनाना सीखो

     

    खिलाके खाओ |

       
     

     बीज वही है

    ५२४ .

    बोयें फले अनंत

     

    अन्यथा विष।

       
     

     भावुक नहीं

    ५२५ .

    अभिभावक भाषा

     

    भारती बोलें।

       
     

     प्रश्न तो मॉंजो

    ५२६ .

    उत्तर कैसे दे दूँ ?

     

    गहरे में हूँ |

       
     

     प्रश्न न सहे

    ५२७ .

    सो विद्यादानी कैसे?

     

    संयम रखो |

       
     

     अच्छा लगता

    ५२८ .

    तुम कुछ भी कहो

     

    पागलपन |

       
     

     भले दूर हूँ

    ५२९ .

    निकट भेज पाता

     

    अपनापन |

       
     

     प्रश्न चिह्न था

    ५३० .

    चरण चिह्न मिले

     

    वतन वहाँ।

       
     

     मन तो रोको

    ५३१ .

    चल फिर न सको

     

    बोलो न बको ।

       
     

     किसी कोने में

    ५३२ .

    कचरा नहीं रहे

     

    मन में देखो (झाँको) ।

       
     

      सिर पे पल्ला

    ५३३ .

    मर्यादा नहीं टूटे

     

    पनघट पे ।

       
     

     सतर्क रहो

    ५३४ .

    उछलकूद रहे (नहीं)

     

    जमघट में ।

       
     

     पानी तो भरो

    ५३५ .

    दलदल नहीं हो

     

    पनघट पे ।

       
     

     ताना ना बनो

    ५३६ .

    बाना तो बनो सुनो /सनो

     

    सबके बनो ।

       
     

     भविष्य जानो  (आगे का जानो)

    ५३७ .

     इतिहास पढ़ो तो

     

     अब में जियो ।

       
     

     चाँद पे नहीं

    ५३८ .

    ऊँचाई पे पहुँचो

     

    लौट न आना ।

       
     

     अधिक नहीं

    ५३९ .

    वैधानिक तो बनो

     

    फिर धनिक ।

       
     

     आज्ञा देने से

    ५४० .

    आज्ञा का पालना सो

     

    बहुत सीधा |

       
     

     कैदी कभी भी

    ५४१ .

    भाग सकता पर

     

    क्या जेलर भी ।

       
     

     गंध खाने में

    ५४२ .

    न आती फिर क्यों तू ?

     

    सौगन्ध खाता |

       
     

     जिससे तुम्हें

    ५४३ .

    घृणा होती उससे

     

    अनुराग क्यों?

       
     

     नाड़ हिलती

    ५४४ .

    लार गिर रही पै

     

    ओरी तृष्णा तू |

       
     

     पक्षपात तो

    ५४५ .

    पूरे पे हो आधे में

     

    पक्षाघात हो ।

       
     

     परिग्रह को

    ५४६ .

     मूर्च्छा कहा दाता भी

     

    मूर्च्छित न हो ।

       
     

     दुसंगति से

    ५४७ .

    बच सत्संगति में

     

    आ या नहीं आ |

       
     

     भक्ष्या भक्ष्य में

    ५४८ .

    नहीं समता रखो

     

    शत्रु मित्र में |

       
     

     पर्वत बना

    ५४९ .

    तपस्वी सूखे पेड़

     

    हड्डी से लगे ।

       
     

     मन का काम

    ५५० .

    नहीं मन से काम

     

    लो बेड़ा पार |

       
     

     मेरा क्या दोष ?

    ५५१ .

    प्रभु ने जैसा देखा

     

    वैसा करता ।

       
     

     लोह के वश

    ५५२ .

    अग्नि की पिटाई हो

     

    अब तो चेतो।

       
     

    शब्दों में अर्थ

    ५५३ .

    भरा या आत्मा में सो

     

    सोचता कौन?

       
     

     सुनो तो सही

    ५५४ .

    पहले यही गुनो

     

    सोचो बाद में ।

       
     

     सुनो तो सही

    ५५५ .

    सोचना गौण करो

     

    बाद में गुनो।

       
     

     गुणी बनना

    ५५६ .

    सौ गुणी बनाना है

     

    मैं को मना लो।

       
     

     शिक्षा से जुड़ो

    ५५७ .

    नई नीति से नहीं

     

    राष्ट्रीय बनों।

       
     

     स्वयं को छोड़

    ५५८ .

    तुम्हें क्यों ? देखूँ तुम

     

     औरों में डूबे।।

       
     

     जब पूर्व हूँ

    ५५९ .

    और औरो की कोर

     

    क्यों कर चाहूँ ?

       
     

     भुजिया नहीं

    ५६० .

    डुबकरियाँ चाहूँ

     

    गरमी मिटे।

       
     

     संवेदना हो

    ५६१ .

    पर के प्रति पर

     

    सहूँ वेदना।

       
     

     दवा तो दवा

    ५६२ .

    दुआ भी नहीं चाहूँ

     

    हे स्वयंभुवा।

       
     

     गोद ले लो या

    ५६३ .

    गोद में ले लो कैसे?

     

    निगोद जाऊँ।

       
     

      मतदान तो

    ५६४ .

    शत प्रतिशत हो

     

    हाँ में या ना में।

       
     

     निर्बल बना

    ५६५  .

    चिंतन का जीवन

     

    मंत्र योग से।

       
     

     गुरु अंक में

    ५६६ .

    अंक मिले धुलेंगे

     

    शेष कलंक।

       
     

     मेरा यहाँ क्या ?

    ५६७ .

    आशीष फल रहा

     

    शीर्ष जा बैठूँ |

       
     

     आना पुराणा

    ५६८ .

    क्यों बॅंधा नहीं बना ?

     

    बंदा न बना।

       
     

      ऐच्छिक प्रश्न

    ५६९ .

    अंक बढ़ाते मुख्य

     

    अंक दिलाते।

       
     

     मौन से अच्छा

    ५७० .

    सार्थक 'बोलो' बोलो

     

    कटु हितैषी |

       
     

     पक्ष ने कहा

    ५७१  .

    विपक्ष से पंख लो

     

    हम तो उड़े |

       
     

     विपक्ष बोला

    ५७२ .

    विशेष पक्ष तो हो

     

    सामान्य बनो |

       
     

     आपस में तो

    ५७३ .

    आप सम में देखो

     

    पाप ताप क्यों?

       
     

     मूक साधना

    ५७४ .

    बहरे बनकर

     

    करते चलो |

       
     

     पथ कितना?

    ५७५ .

    कर्तव्य की परिधि

     

    व्यास जितना |

       
     

     गुरु अंक ने

    ५७६ .

    अंक दिए धुलेंगे

     

    सारे कलंक ।

       
     

     क्षायिक यानि

    ५७७ .

    जो हुआ सो अमिट

     

    (पूरा) पूर्ण न भी हो।

       
     

     वर दे सीते

    ५७८ .

    देवर को वह भी

     

    बराबर हो।

       
     

     मोक्ष मार्ग सो

    ५७९ .

    जटिल तो है किन्तु

     

    कुटिल नहीं।

       
     

     यही है हित

    ५८० .

    अहित न हो कभी

     

    परापर का।

       
     

     मूलगुण तो

    ५८१ .

     इन्द्रियजय न कि

     

    मनोविजय!

       
     

     मौन में डूबो

    ५८२ .

    बहरे बनकर

     

    साधना साधो।

       
     

     विदेशी शिक्षा

    ५८३ .

    ढो रहें है तभी तो

     

    हम ढोर हैं।

       
     

     देखूँ न दिखूँ

    ५८४ .

    दिखता न देखता

     

    कैसा रहस्य?

       
     

     आगे तो बढ़ो

    ५८५ .

    इतिहास तो पढ़ो

     

    जीना तो चढ़ो ।

       
     

     ज्ञानी बने वे

    ५८६ .

    अज्ञान की पीड़ा में

     

    प्रसन्नचित्त।

       
     

     उन्मार्ग छोड़ो

    ५८७ .

    बीच में आओ मत

     

    भद्रता भजो।

       
     

     अति की शंसा

    ५८८ .

    नहीं गुणानुशंसा

     

    गुरु से सीखी।

       
     

     विष का पान

    ५८९ .

     समता सहित हो

     

    पियूष पीओ।

       
     

     शत्रु मित्र में

    ५९० .

    समता हो संयम

     

    भक्षाभक्ष में।

       
     

     कैंचली छोड़ी

    ५९१ .

    सर्प ने वस्त्र छोड़े

     

    छोड़े न विष।

       
     

     हमसे उन्हें

    ५९२ .

    थोड़ा भी कष्ट न हो

     

    यही सेवा है।

       
     

     घटबढ़ में

    ५९३ .

    विघटन नहीं हो

     

    घट- घट हो।

       
     

     दूर भले हूँ

    ५९४ .

    निकट भेज देता

     

    अपनापन।

       
     

     इसी में हित

    ५९५ .

    अहित मत करो

     

    परापर का।

       
     

     संग्रह नहीं

    ५९६  .

    वितरण हो वही

     

    लोकतंत्र है ।

       
     

     क्या देख रहे ?

    ५९७ .

    आगे पीछे शून्य है

     

    हम न तुम।

       
     

     अभी कहाँ हो ?

    ५९८ .

    युग लौट रहा है

     

    तुम बदलो |

       
     

     चाँद पे नहीं

    ५९९ .

    ऐसी उन्नति करो

     

    नीचे न गिरो |

       
     

     क्या जानूँ क्या न ?

    ६०० .

    गुरु सब जानते

     

    कर्त्तव्य करुँ  |

       
     

     विवेक न था

    ६०१ .

    अनेक नेक टले

     

    जाग के रोता |

       
     

     स्वदेशी तो हूँ

    ६०२ .

    भीड़ के बीच में भी

     

    मौनी बना हूँ |

       
     

     क्षमा माँगना

    ६०३ .

    मेरा असह्य होगा

     

    क्षमा कर दूँ |

       
     

     अशन यहाँ

    ६०४ .

    व्यसन नहीं होता

     

    सो आसन भी |

       
     

     लज्जा न तुले

    ६०५ .

    शील का पालन हो

     

    शैथिल्य शून्य |

       
     

     स्वभाव और

    ६०६ .

    विभाव एक में हो

     

    एक साथ न |

       
     

     स्वभाव भाव

    ६०७ .

    और विभाव एक

     

    साथ नहीं हो |

       
     

     मैं तो स्वस्थ्य हूँ

    ६०८ .

    आप आश्वस्त हो तो

     

    शाश्वत बनो |

       
     

     पर से हो तो

    ६०९ .

    स्वानुभव समीक्षा

     

    नयन सुने |

       
     

     क्षण भंगुर

    ६१० .

    तरंग होते देखूँ

     

    जल तो जल |

       
     

     तुम एक हो

    ६११ .

    सुख अनेक हैं सो

     

    दुः ख ही दुः ख |

       
     

     बोलो न सुनो

    ६१२ .

    बधिर से स्वस्वाद

     

    ले सकते हो |

       
     

     दूर भले हो

    ६१३ .

    दृष्टि में धूल न हो

     

    दूर दृष्टि हो |

       
     

     मैं आपका हूँ

    ६१४ .

    आपके कहने से

     

    मूर्च्छा मुक्त हूँ |

       
     

     मैं आपका हूँ

    ६१५ .

    आप न मेरे क्योंकि ?

     

    मूर्च्छा मुक्त हूँ |

       
     

     स्वस्थ्य विवेक

    ६१६ .

    विषयों में उलझा

     

    विवेक ही न |

       
     

     भीड़-भाड़ में

    ६१७ .

    कोलाहल मिलेगा

     

    सतर्क हो जा |

       
     

     ग्लानि की हानि

    ६१८ .

    स्नेह वृद्धि सेवा से

     

    इन्द्रिय सम |

       
     

     कला नाना हो

    ६१९ .

    स्वानुभूति नाना ना

     

    माँ अद्वैत की |

       
     

     अधः पात् पत्र

    ६२० .

    सो कली-कली खिली

     

    हँसता तरु |

       
     

     युग की वृत्ति

    ६२१ .

    और व्यावृत्ति ये तो

     

    स्वभाव से है |

       
     

     गुरु वात्सल्य

    ६२२ .

    शिष्य विनय पाले

     

    संघ स्वस्थ्य हो |

       
     

     गर्व तो गले

    ६२३ .

    गले से गले मिले

     

    दया से भीगे |

       
     

     धूप में बैठूँ

    ६२४ .

    दौड़- धूप से बचूँ

     

    दौड़ होड़ है |

       
     

     हार- जीत क्या?

    ६२५ .

    जीत सको तो जीतो

     

    शत्रु- मित्र हो |

       
     

     ऐसी धारणा

    ६२६ .

    न हो संदेह बढ़े

     

    परस्पर में |

       
     

     गुरु ने मुझे

    ६२७ .

    गुरु समय दिया

     

    लघु (रघु) बनने |

       
     

     काया कल्प हो

    ६२८ .

    कल्प-कल्प तरु है

     

     कल्पना नहीं |

       
     

     आँखें टेड़ी हो

    ६२९ .

    दृष्टि बदली बस

     

    सृष्टि सुध ली |

       
     

     भले न सूँघो

    ६३० .

    नाक तो न मरोड़ो

     

    दो - दो गंध है |

       
     

     दिवा न निशा

    ६३१ .

    उषा निरी दोनों से

     

    किसे नकारो ?

       
     

     दिवा "दिवा" है

    ६३२ .

    निशा "निशा" है उषा

     

    निराली लाली |

       
     

     अंधा बनाती

    ६३३ .

    कर्त्ती अकर्त्ती कैसे ?

     

    दिवाऽभाव क्यों?

       
     

     अस्तित्व हीन

    ६३४ .

    पर सिद्धि में हेतू

     

    बना क्या मानों ?

       
     

     यान की गति

    ६३५ .

    से अभियान गति

     

    सौ गुनी होती |

       
     

     दबी दक्षता

    ६३६ .

    लक्ष्य दुर्लक्ष्य हुआ

     

    एकाकी साक्ष्य।

       
     

     अपना सोचा

    ६३७ .

    ना हो अफसोस है

     

    फिर भी सोचूँ |

       
     

     निरा-कुल हूँ

    ६३८ .

    कुलीनों का कुल हूँ

     

    निराकुल हूँ |

       
     

     ना मत कहो

    ६३९ .

    हाँ की कूबत देखो

     

    दंग रहोगे |

       
     

     आभार मानूँ

    ६४० .

    गुरु ने भर दिया

     

    भार संभालूँ ।

       
     

     मैं अतीत में

    ६४१ .

    उलझता नहीं हूँ

     

    टकराता हूँ।

       
     

     तारीफ़ नहीं

    ६४२ .

    अपनी तरफ तू

     

    देखता रह ।

       
     

     रोजी की नहीं

    ६४३ .

    रोजगार की बात

     

    होनी चाहिए ।

       
     

     ध्यान में डूबा

    ६४४ .

    मन का कोलाहल

     

    शांत होता है।

       
     

     अपाय पाए

    ६४५ .

    आप बिन आपसे

     

    उपाय पाऊँ ।

       
     

     शास्त्र लिखना

    ६४६ .

    स्वाध्याय नहीं है सो

     

    आरंभ माना।

       
     

     राष्ट्र मुद्रा ने

    ६४७ .

    शैक्षिक पाठ्यक्रम

     

    मौलिक माना।

       
     

     शिक्षा क्षेत्र में

    ६४८ .

    लक्ष्मी के उपासक

     

    प्रवेश ना लें।

       
     

     असंज्ञी ना हो

    ६४९ .

    संगीन अपराध

     

    क्यों करते हो ?

       
     

     विदेशी शिक्षा

    ६५० .

    कागज़ के फूल पे

     

    भ्रमर बैठा।

     

      भारत बसा

    ६५१ .

    उनसे जिनका तो

     

    घर ना बसा।

     

     

     

    ६५२.   

    वाद्य साथ दें,
    गीत संगीत बने,
    नाड़ नाचती। 

     

    ६५३ . 

    अध्यात्म पद 
    अध्यात्म ग्रन्थों में भी
    क्या बता रहे?

     

    विशेष 1 जनवरी 2024 को आचार्य श्री जी ने अपने शिष्य मंडली को यह हाइकू ६५३ .  दिया था 

     

    ६५४.वादन में तो
    वाद विवाद न हो
    संवाद भरे।

     

    ६५५.बुद्धि में तेज
    लड़का तेज भी है
    या वंशज है।

     

    ६५६.मत न देना
    लोकतंत्र मिटाना
    साक्षर हो के।

     

    ६५७.भिक्षा शिक्षा की
    भिक्षक बन मांगूँ
    रागी भिक्षु से।

     

    ६५८.जीतो तो सही
    इंद्रिय विषयों को
    सो मन जीतो।

     

    ६५९.सार्थक बोलो
    शब्द साधो यही तो
    आत्म साधना।

     

    ६६०.काव्य तो लिखूँ
    कालजयी क्षणिका
    उपन्यास है।

     

    ६६१.ज्ञानोपयोग
    विश्रांत हो तो मिले
    निजी नैकट्य।

     

    ६६२.रवि से जैसा
    कमल का विकास
    गुरू से मेरा।

     

    ६६३.भावनाओ में
    बारह भावना ये
    वैराग्य जनी।

     

    ६६४.दोसा न दोषी
    तवा पर तपे तो
    सर्व सेव्य हो।

     

    ६६५.चिंतन करूॅं 
    ताजा तजूॅ़ं बासी का
    भोजन करूॅं।

     

    ६६६.सनातन हो
    मोहवश हम तो
    तनातन है।

     

    ६६७.स्मृति में आते
    मिलन सार भी हैं
    मिलते नहीं।

     

     

    ६६८.श्वास विश्वास
    मिले,शेष क्या मांगूँ
    गुरू से खास।

     

    ६६९.क्यों खौलता तू
    निजी खोल में खोजा
    आँखें खुलेंगी।

     

    ६७०.अपने से न
    अपनेआप चुप-
    चाप हो रहा।


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